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बुधवार, 14 अक्टूबर 2015

विशेष पूजन प्रकार

विशेष पूजन प्रकार
प्रतिपदा से ही पूजक पुरोहित, आचार्य, ब्रह्मा एवं पार्ठकत्ताओं का सविधि वरण किया जाता है। सबके सब नियम पूर्वक अपना कार्य करते हैं। षष्ठी तिथि को बिल्व फल पूजन के लिए पूर्व से ही निर्धारित बिल्व वृक्ष का चयन किया जाता है। बिल्व फल एक ही डाल में जोड़े (दो) होने चाहिए। षष्ठी के सांयकाल गाजे-बाजे व समारोह के साथ बिल्व वृक्ष के नीचे जाकर वृक्ष पूजन और फल पूजन किया जाता है। फलों को पीले वस्त्र में पुष्प, अक्षत, हल्दी की गांठ, साबूत धनिया आदि रखकर बाँध दिया जाता है और उसे निमंत्रण दे दिया जाता है। षष्ठी के दिन ही सरस्वती का आवाहन किया जाता है। लेख है-
मूलेन आवाहयेद्देवी श्रवणेन विसर्जयेत्
षष्ठी तिथि और मूल नक्षत्र में सरस्वती का आवाहन और श्रवण नक्षत्र दशमी तिथि में भगवती का विसर्जन किया जाता है।
सप्तमी तिथि को प्रात: काल ही समारोह के साथ बिल्व वृक्ष के पास जाकर वृक्ष और फलों का पूजन किया जाता है। बिल्व वृक्ष रूप लक्ष्मी से प्रार्थना कर फल काट लेते हैं। ध्यान रहे, फल काटते समय डण्ठल एक ही बार में कट जाय। उसके बाद फलों को किसी विशेष सवारी पर लाकर पूजन स्थल (मन्दिर) के दरवाजे के सामने बाहर में ही स्थान को पवित्र कर चावल से अष्टदल कमल बनाकर उस पर रखकर विधान पूर्वक पूजन करें। पूजन के साथ ही बलिदान का भी विधान है। आस पास के रहने वाले भूत-प्रेतों के लिए भी बलिदान दिया जाता है। पुन: मन्दिर का द्वार पूजन व द्वार देवताओं के लिए बलिदान देकर स्वस्ति वाचन के साथ फल लेकर प्रवेश करें।
बिल्व फल को पूर्व स्थापित सर्वतोभद्रमंडल पर कलश के बगल में रखें। बिल्व फल के साथ ही नव प्रकार के वनस्पतियों के पत्ते यथा धान्य, जयंती, कचु, हल्दी, कदली, अशोक, अनार व मानक के पत्ते नवपत्रिकाओं पर क्रमश: कदली (केले), षट (ब्रह्माणी), अनार-रक्तदंतिका, धान्य-लक्ष्मी, हरिद्रा-दुर्गा, मानक-चामुण्डा, कचुपत्र-कालिका, बिल्वपत्र-शिवा, अशोक-शोक रहिता और जयंती-कातिँकी देवियों का पूजन करना चाहिए। बिल्व फल पर भगवती का आवाहन कर पूजन किया जाता है। इस पूजन के बाद स्थापित मूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा कर पूजन किया जाता है। इसी दिन से नवमी पर्यन्त भगवती की मूर्ति के साथ ही अन्य मूर्तियों की पूजा होती है। मूर्तियों में गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती, कार्तिकेय, शिव, पार्वती आदि की मूर्तियां भी रहती है। सबों का षोडशोपचार पूजन किया जाता है। साथ ही पूर्ववत् पाठादि कार्यक्रम चलते रहते हैं। सप्तमी तिथि से दशमी पर्यन्त महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के नाम से पूजन करना चाहिये।
अष्टमी को पूर्ववत् पूजन पाठ आदि होते हैं। मध्य रात्रि में अष्टमी तिथि रहते हुए निशापूजा का विधान है। यदि अष्टमी के मध्य रात्रि में अष्टमी तिथि नहीं हो तो सप्तमी की ही अष्टमी युक्त मध्य रात्रि में निशापूजा करनी चाहिए। निशा पूजा में विशेषकर योगिनियों की पूजा के साथ अंग पूजन, वाहन, अस्त्र, शस्त्रादि का पूजन किया जाता है।
पूजन के उपरान्त सब देवताओं के लिए बलि भी दी जाती है। बलि से अभिप्राय अपितु कुष्माण्ड, नारियल, नीबू एवं चावल, उड़द, दही का मिश्रित बलि सब देवताओं के लिए दी जाती है और सर्वमान्य हैं। और यदि संभव हो तो 101 घी का दीपक जलाकर भगवती को उत्सर्ग करें। इसी निशा पूजा के समय शिवाबलि का विधान है। यह एक आवश्यक विधान माना गया है। यदि संभव हो तो चावल (भात), सब्जी, दही आदि के साथ शिवा (सियाल) के मांद के सामने रख दें। यों तो विधान हैं कि सायंकाल ही जाकर उसके मांद के पास एक सुपारी या पुष्प रखकर निमंत्रण दे दें और अर्धरात्रि में उक्त सामान भोजन के लिए जगह लीप कर रखें। साथ ही पूजन भी कर दें। इस विधान से नवरात्र पूजन की सफलता व असफलता का भी अनुमान लगाया जाता है। प्रात: काल देखें कि यदि उसने सारा भोजन कर लिया है या नहीं, यदि उसने नहीं खाया तो पूजन की सफलता में लोग त्रुटि का अनुमान लगाते हैं।
नवमी तिथि को पूर्ववत् पूजन पाठ आदि कार्यक्रम होते हैं। नवमी को ही पाठादि कार्यक्रम पूर्ण कर लिया जाता है। सायं अथवा रात्रि में नवरात्र की पूर्णाहुति रूप हवन किया जाता है। कहीं कहीं नवमी के दिन में ही हवन करते हैं। इसमें कोई विरोध नहीं हैं। यहां तक भी देखा जाता है कि घर में अथवा मंदिरों में जहां मूर्ति की स्थापना नहीं होती अष्टमी की रात्रि में भी हवन करते हैं। यह भी विधान से बाहर की बात नहीं है किंतु संकल्पित पाठ पूर्ण होने पर ही हवन का विधान हैं।

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