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शनिवार, 31 अक्टूबर 2015

बगुला मुखी वल्गा मुखी बगला मुखी

बगुला मुखी वल्गा मुखी बगला मुखी .पीताम्बरा आदि नामो से प्रचलित है देबी भगवती बगलामुखी को स्तम्भन की देवी कहा गया है।
स्तम्भनकारिणी शक्ति नाम रूप से व्यक्त एवं अव्यक्त सभी पदार्थो की स्थिति का आधार पृथ्वी के रूप में शक्ति ही है, और बगलामुखी उसी स्तम्भन शक्ति की अधिस्ठात्री देवी हैं।
इसी स्तम्भन शक्ति से ही सूर्यमण्डल स्थित है,
सभी लोक इसी शक्ति के प्रभाव से ही स्तंभित है।
अतः साधक गण को चाहिये कि ऐसी महाविद्या कि साधना सही रीति व विधानपूर्वक ही करें।
अब हम साधकगण को इस महाविद्या के विषय में कुछ और जानकारी देना आवश्यक समझते है, जो साधक इस साधना को पूर्ण कर, सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें इन तथ्यो की जानकारी होना अति आवश्यक है।
1 ) कुल : – महाविद्या बगलामुखी “श्री कुल” से सम्बंधित है।
2 ) नाम : – बगलामुखी, पीताम्बरा , बगला , वल्गामुखी , वगलामुखी , ब्रह्मास्त्र विद्या
3 ) कुल्लुका : – मंत्र जाप से पूर्व उस मंत्र कि कुल्लुका का न्यास सिर में किया जाता है। इस विद्या की कुल्लुका “ॐ हूं छ्रौम्” (OM HOOM Chraum)
4) महासेतु : – साधन काल में जप से पूर्व ‘महासेतु’ का जप किया जाता है। ऐसा करने से लाभ यह होता है कि साधक प्रत्येक समय, प्रत्येक स्थिति में जप कर सकता है। इस महाविद्या का महासेतु “स्त्रीं” (Streem) है। इसका जाप कंठ स्थित विशुद्धि चक्र में दस बार किया जाता है।
5) कवचसेतु :- इसे मंत्रसेतु भी कहा जाता है। जप प्रारम्भ करने से पूर्व इसका जप एक हजार बार किया जाता है। ब्राह्मण व छत्रियों के लिए “प्रणव “, वैश्यों के लिए “फट” तथा शूद्रों के लिए “ह्रीं” कवचसेतु है।
6 ) निर्वाण :- “ह्रूं ह्रीं श्रीं” (Hroom Hreem Shreem) से सम्पुटित मूल मंत्र का जाप ही इसकी निर्वाण विद्या है। इसकी दूसरी विधि यह है कि पहले प्रणव कर, अ , आ , आदि स्वर तथा क, ख , आदि व्यंजन पढ़कर मूल मंत्र पढ़ें और अंत में “ऐं” लगाएं और फिर विलोम गति से पुनरावृत्ति करें।
7 ) बंधन :- किसी विपरीत या आसुरी बाधा को रोकने के लिए इस मंत्र का एक हजार बार जाप किया जाता है। मंत्र इस प्रकार है ” ऐं ह्रीं ह्रीं ऐं ” (Aim Hreem Hreem Aim)
8) मुद्रा :- इस विद्या में योनि मुद्रा का प्रयोग किया जाता है।
9) प्राणायाम : – साधना से पूर्व दो मूल मंत्रो से रेचक, चार मूल मंत्रो से पूरक तथा दो मूल मंत्रो से कुम्भक करना चाहिए। दो मूल मंत्रो से रेचक, आठ मूल मंत्रो से पूरक तथा चार मूल मंत्रो से कुम्भक करना और भी अधिक लाभ कारी है।
10 ) दीपन :- दीपक जलने से जैसे रोशनी हो जाती है, उसी प्रकार दीपन से मंत्र प्रकाशवान हो जाता है। दीपन करने हेतु मूल मंत्र को योनि बीज ” ईं ” ( EEM ) से संपुटित कर सात बार जप करें
11) जीवन अथवा प्राण योग : – बिना प्राण अथवा जीवन के मन्त्र निष्क्रिय होता है, अतः मूल मन्त्र के आदि और अन्त में माया बीज “ह्रीं” (Hreem) से संपुट लगाकर सात बार जप करें ।
12 ) मुख शोधन : – हमारी जिह्वा अशुद्ध रहती है, जिस कारण उससे जप करने पर लाभ के स्थान पर हानि ही होती है। अतः “ऐं ह्रीं ऐं ” मंत्र से दस बार जाप कर मुखशोधन करें
13 ) मध्य दृस्टि : – साधना के लिए मध्य दृस्टि आवश्यक है। अतः मूल मंत्र के प्रत्येक अक्षर के आगे पीछे “यं” (Yam) बीज का अवगुण्ठन कर मूल मंत्र का पाँच बार जप करना चाहिए।
14 ) शापोद्धार : – मूल मंत्र के जपने से पूर्व दस बार इस मंत्र का जप करें –
” ॐ हलीं बगले ! रूद्र शापं विमोचय विमोचय ॐ ह्लीं स्वाहा ”
(OM Hleem Bagale ! Rudra Shaapam Vimochaya Vimochaya OM Hleem Swaahaa )
15 ) उत्कीलन : – मूल मंत्र के आरम्भ में ” ॐ ह्रीं स्वाहा ” मंत्र का दस बार जप करें।
16 ) आचार :- इस विद्या के दोनों आचार हैं, वाम भी और दक्षिण भी ।
17 ) साधना में सिद्धि प्राप्त न होने पर उपाय : – कभी कभी ऐसा देखने में आता हैं कि बार बार साधना करने पर भी सफलता हाथ नहीं आती है। इसके लिए आप निम्न वर्णित उपाय करें –
a) कर्पूर, रोली, खास और चन्दन की स्याही से, अनार की कलम से भोजपत्र पर वायु बीज “यं” (Yam) से मूल मंत्र को अवगुण्ठित कर, उसका षोडशोपचार पूजन करें। निश्चय ही सफलता मिलेगी।
b) सरस्वती बीज “ऐं” (Aim) से मूल मंत्र को संपुटित कर एक हजार जप करें।
c) भोजपत्र पर गौदुग्ध से मूल मंत्र लिखकर उसे दाहिनी भुजा पर बांध लें। साथ ही मूल मंत्र को “स्त्रीं” (Steem) से सम्पुटित कर उसका एक हजार जप करें
18 ) विशेष : – गंध,पुष्प, आभूषण, भगवती के सामने रखें। दीपक देवता के दायीं ओर व धूपबत्ती बायीं ओर रखनी चाहिए। नैवेद्य (Sweets, Dry Fruits ) भी देवता के दायीं ओर ही रखें। जप के उपरान्त आसन से उठने से पूर्व ही अपने द्वारा किया जाप भगवती के बायें हाथ में समर्पित कर दें।
अतः ऐसे साधक गण जो किन्ही भी कारणो से यदि अभी तक साधना में सफलता प्राप्त नहीं कर सकें हैं, उपर्युक्त निर्देशों का पालन करते हुए पुनः एक बार फिर संकल्प लें, तो निश्चय ही पराम्बा पीताम्बरा की कृपा दृस्टि उन्हें प्राप्त होगी..

नवार्ण मन्त्र विधि:

नवार्ण मन्त्र विधि:
श्रीगणपतिर्जयति
ॐ अस्य श्रीनवार्णमन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दासि, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।
१. ऋष्यादिन्यास :
ब्रम्हविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नमः शिरसि
गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दोभ्यो नमः मुखे
श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताभ्यो नमः हृदि
ऐं बीजाय नमः गुह्ये
ह्रीं शक्तये नमः पादयो
क्लीं कीलकाय नमः नाभौ
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे :- इस मूल मन्त्र से हाथ धोकर करन्यास करें।
२. करन्यास:
ॐ ऐं अंगुष्ठाभ्यां नमः (दोनों हाथों की तर्जनी अँगुलियों से अंगूठे के उद्गम स्थल को स्पर्श करें )
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ( दोनों अंगूठों से तर्जनी अँगुलियों का स्पर्श करें )
ॐ क्लीं मध्यमाभ्यां नमः ( दोनों अंगूठों से मध्यमा अँगुलियों का स्पर्श करें )
ॐ चामुण्डायै अनामिकाभ्यां नमः ( दोनों अंगूठों से अनामिका अँगुलियों का स्पर्श करें )
ॐ विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां नमः ( दोनों अंगूठों से कनिष्ट/ कानी / छोटी अँगुलियों का स्पर्श करें )
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ( हथेलियों और उनके पृष्ठ भाग का स्पर्श )
३. हृदयादिन्यास :
ॐ ऐं हृदयाय नमः (दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों से ह्रदय का स्पर्श )
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा (शिर का स्पर्श )
ॐ क्लीं शिखायै वषट् (शिखा का स्पर्श)
ॐ चामुण्डायै कवचाय हुम् ( दाहिने हाथ की अँगुलियों से बाएं कंधे एवं बाएं हाथ की अँगुलियों से दायें कंधे का स्पर्श)
ॐ विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट् ( दाहिने हाथ की उँगलियों के अग्रभाग से दोनों नेत्रों और मस्तक में भौंहों के मध्यभाग का स्पर्श)
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट ( यह मन्त्र पढ़कर दाहिने हाथ को सिर के ऊपर से बायीं ओर से पीछे ले जाकर दाहिनी ओर से आगे लाकर तर्जनी और मध्यमा अँगुलियों से बाएं हाथ की हथेली पर ताली बजाएं।
४. वर्णन्यास :
**इस न्यास को करने से साधक सभी प्रकार के रोगों से मुक्त हो जाता है**
ॐ ऐं नमः शिखायाम्
ॐ ह्रीं नमः दक्षिणनेत्रे
ॐ क्लीं नमः वामनेत्रे
ॐ चां नमः दक्षिणकर्णे
ॐ मुं नमः वामकर्णे
ॐ डां नमः दक्षिणनासापुटे
ॐ यैं नमः वामनासापुटे
ॐ विं नमः मुखे
ॐ च्चें नमः गुह्ये
इस प्रकार न्यास करके मूलमंत्र से आठ बार व्यापक न्यास (दोनों हाथों से शिखा से लेकर पैर तक सभी अंगों का ) स्पर्श करें।
अब प्रत्येक दिशा में चुटकी बजाते हुए निम्न मन्त्रों के साथ दिशान्यास करें:
५. दिशान्यास:
ॐ ऐं प्राच्यै नमः
ॐ ऐं आग्नेय्यै नमः
ॐ ह्रीं दक्षिणायै नमः
ॐ ह्रीं नैऋत्यै नमः
ॐ क्लीं प्रतीच्यै नमः
ॐ क्लीं वायव्यै नमः
ॐ चामुण्डायै उदीच्यै नमः
ॐ चामुण्डायै ऐशान्यै नमः
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे उर्ध्वायै नमः
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे भूम्यै नमः
अन्य न्यास :- यदि साधक चाहे तो इतने ही न्यास करके नवार्ण मन्त्र का जप आरम्भ करे किन्तु यदि उसे और भी न्यास करने हों तो वह भी करके ही मूल मन्त्र जप आरम्भ करे।
यथा :-
६. सारस्वतन्यास :
**इस न्यास को करने से साधक की जड़ता समाप्त हो जाती है**
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः कनिष्ठिकाभ्यां नमः
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः अनामिकाभ्यां नमः
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः मध्यमाभ्यां नमः
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः तर्जनीभ्यां नमः
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः अंगुष्ठाभ्यां नमः
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः हृदयाय नमः
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिरसे स्वाहा
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिखायै वषट्
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः कवचाय हुम्
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः नेत्रत्रयाय वौषट्
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः अस्त्राय फट
७. मातृकागणन्यास :
**इस न्यास को करने से साधक त्रैलोक्य विजयी होता है**
ह्रीं ब्राम्ही पूर्वतः माँ पातु
ह्रीं माहेश्वरी आग्नेयां माँ पातु
ह्रीं कौमारी दक्षिणे माँ पातु
ह्रीं वैष्णवी नैऋत्ये माँ पातु
ह्रीं वाराही पश्चिमे माँ पातु
ह्रीं इन्द्राणी वायव्ये माँ पातु
ह्रीं चामुण्डे उत्तरे माँ पातु
ह्रीं महालक्ष्म्यै ऐशान्यै माँ पातु
ह्रीं व्योमेश्वरी उर्ध्व माँ पातु
ह्रीं सप्तद्वीपेश्वरी भूमौ माँ पातु
ह्रीं कामेश्वरी पतालौ माँ पातु
८. षड्देविन्यास
**इस न्यास को करने से वृद्धावस्था एवं मृत्यु भय से मुक्ति मिलती है**
कमलाकुशमण्डिता नंदजा पूर्वांग मे पातु
खडगपात्रकरा रक्तदन्तिका दक्षिणाङ्ग मे पातु
पुष्पपल्लवसंयुता शाकम्भरी प्रष्ठांग मे पातु
धनुर्वाणकरा दुर्गा वामांग मे पातु
शिरःपात्रकराभीमा मस्तकादि चरणान्तं मे पातु
चित्रकान्तिभूत भ्रामरी पादादि मस्तकान्तम् मे पातु
९. ब्रह्मादिन्यास
**इस न्यास को करने से साधक के सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं**
ॐ सनातनः ब्रह्मा पाददीनाभिपर्यन्त मा पातु
ॐ जनार्दनः नाभिर्विशुद्धिपर्यन्तं मा पातु
ॐ रुद्रस्त्रिलोचनः विशुद्धेर्ब्रह्मरन्ध्रांतं मा पातु
ॐ हंसः पदद्वयं मा पातु
ॐ वैनतेयः करद्वयं मा पातु
ॐ वृषभः चक्षुषी मा पातु
ॐ गजाननः सर्वाङ्गानि मा पातु
ॐ आनंदमयो हरिः परापरौ देहभागौ मा पातु
१०. महालक्ष्मयादिन्यास
**इस न्यास को करने से धन-धान्य के साथ-साथ सद्गति की प्राप्ति होती है **
ॐ अष्टादशभुजान्विता महालक्ष्मी मध्यं मे पातु
ॐ अष्टभुजोर्विता सरस्वती उर्ध्वे मे पातु
ॐ दशभुजसमन्विता महाकाली अधः मे पातु
ॐ सिंहो हस्त द्वयं मे पातु
ॐ परंहंसो अक्षियुग्मं मे पातु
ॐ दिव्यं महिषमारूढो यमः पादयुग्मं मे पातु
ॐ चण्डिकायुक्तो महेशः सर्वाङ्गानी मे पातु
११. बीजमन्त्रन्यास :
ॐ ऐं हृदयाय नमः (दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों से ह्रदय का स्पर्श )
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा (शिर का स्पर्श )
ॐ क्लीं शिखायै वषट् (शिखा का स्पर्श)
ॐ चामुण्डायै कवचाय हुम् ( दाहिने हाथ की अँगुलियों से बाएं कंधे एवं बाएं हाथ की अँगुलियों से दायें कंधे का स्पर्श)
ॐ विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट् ( दाहिने हाथ की उँगलियों के अग्रभाग से दोनों नेत्रों और मस्तक में भौंहों के मध्यभाग का स्पर्श)
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट ( यह मन्त्र पढ़कर दाहिने हाथ को सिर के ऊपर से बायीं ओर से पीछे ले जाकर दाहिनी ओर से आगे लाकर तर्जनी और मध्यमा अँगुलियों से बाएं हाथ की हथेली पर ताली बजाएं।
१२. विलोमबीजन्यास :

**इस न्यास को समस्त दुःखहर्ता के नाम से भी जाना जाता है**
ॐ च्चें नमः गुह्ये
ॐ विं नमः मुखे
ॐ यैं नमः वामनासापुटे
ॐ डां नमः दक्षिणनासापुटे
ॐ मुं नमः वामकर्णे
ॐ चां नमः दक्षिणकर्णे
ॐ क्लीं नमः वामनेत्रे
ॐ ह्रीं नमः दक्षिणनेत्रे
ॐ ऐं नमः शिखायाम्
१३. मन्त्रव्याप्तिन्यास:
**इस न्यास को करने से देवत्व की प्राप्ति होती है**
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मस्तकाचरणान्तं पूर्वाङ्गे (आठ बार )
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे पादाच्छिरोंतम दक्षिणाङ्गे (आठ बार)
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे पृष्ठे (आठ बार)
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे वामांगे (आठ बार)
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मस्तकाच्चरणात्नं (आठ बार)
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे चरणात्मस्तकावधि (आठ बार)
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे
इसके पश्चात मूल मन्त्र के १०८/१००८ अथवा अधिक अपनी सुविधानुसार जप संपन्न करें।

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2015

बार बार बीमार पड़ते हैं और आपका स्वास्थ ठीक नहीं रहता तो

यदि आप बार बार बीमार पड़ते हैं और आपका स्वास्थ ठीक नहीं रहता तो ये साधना आपके लिए वरदान साबित होगी ।
ज्वालामालिनी साधना :-
भगवान् शिव की ही एक प्रचंड शक्ति हैं ज्वालामालिनी । इनकी कृपा से साधक का शरीर हृष्ट-पुष्ट एवं सदा स्वस्थ रहता है । इतना ही नहीं, इनके साधक ने यदि इन्हें पूर्ण रूप से सिद्ध कर लिया तो उसके स्पर्श मात्र से ही दूसरों के रोग, व्याधि इत्यादि ठीक हो जाते हैं । यदि आप बार बार बीमार पड़ते हैं और आपका स्वास्थ ठीक नहीं रहता तो ये साधना आपके लिए वरदान साबित होगी ।
इसे संकल्प के द्वारा किसी दुसरे के लिए भी किया जा सकता है । नीचे ये अनमोल साधना दी जा रही है ।
दिशा :- पूर्व । आसन एवं वस्त्र :- श्वेत । माला:- रुद्राक्ष । संख्या :- 21 माला 11 दिनों तक । और एक चैतन्य शिवलिंग ।
॥ ॐ ज्र्म ज्र्म ज्वालामालिनी सर्वभूत संहार-कारिके जातवेदसी ज्वलन्ती प्रज्व्लन्ति ज्वल-ज्वल प्रज्वल हूं रं रं हूं फट ॥
!! विधि :- किसी भी सोमवार से यह साधना आरम्भ की जा सकती है । अपने सामने बजोट पे शिवलिंग स्थापित करें और उसका लघु पूजन करें ।
फिर संकल्प लेकर यह साधना पूर्ण एकाग्रता एवं भक्ति-भाव से 11 दिनों तक करें । 12वे दिन इसी मंत्र के अंत में स्वाहा लगाकर 11 माला आहुति शुद्ध घी से प्रदान करें ।

॥ श्रीहनुमत्ताण्डवस्तोत्रम् ॥

॥ श्रीहनुमत्ताण्डवस्तोत्रम् ॥
वन्दे सिन्दूरवर्णाभं लोहिताम्बरभूषितम् ।
रक्ताङ्गरागशोभाढ्यं शोणापुच्छं कपीश्वरम्॥
भजे समीरनन्दनं, सुभक्तचित्तरञ्जनं, दिनेशरूपभक्षकं, समस्तभक्तरक्षकम् ।
सुकण्ठकार्यसाधकं, विपक्षपक्षबाधकं, समुद्रपारगामिनं, नमामि सिद्धकामिनम् ॥ १॥
सुशङ्कितं सुकण्ठभुक्तवान् हि यो हितं वचस्त्वमाशु धैर्य्यमाश्रयात्र वो भयं कदापि न ।
इति प्लवङ्गनाथभाषितं निशम्य वानराऽधिनाथ आप शं तदा, स रामदूत आश्रयः ॥ २॥
सुदीर्घबाहुलोचनेन, पुच्छगुच्छशोभिना, भुजद्वयेन सोदरीं निजांसयुग्ममास्थितौ ।
कृतौ हि कोसलाधिपौ, कपीशराजसन्निधौ, विदहजेशलक्ष्मणौ, स मे शिवं करोत्वरम् ॥ ३॥
सुशब्दशास्त्रपारगं, विलोक्य रामचन्द्रमाः, कपीश नाथसेवकं, समस्तनीतिमार्गगम् ।
प्रशस्य लक्ष्मणं प्रति, प्रलम्बबाहुभूषितः कपीन्द्रसख्यमाकरोत्, स्वकार्यसाधकः प्रभुः ॥ ४॥
प्रचण्डवेगधारिणं, नगेन्द्रगर्वहारिणं, फणीशमातृगर्वहृद्दृशास्यवासनाशकृत् ।
विभीषणेन सख्यकृद्विदेह जातितापहृत्, सुकण्ठकार्यसाधकं, नमामि यातुधतकम् ॥ ५॥
नमामि पुष्पमौलिनं, सुवर्णवर्णधारिणं गदायुधेन भूषितं, किरीटकुण्डलान्वितम् ।
सुपुच्छगुच्छतुच्छलङ्कदाहकं सुनायकं विपक्षपक्षराक्षसेन्द्र-सर्ववंशनाशकम् ॥ ६॥
रघूत्तमस्य सेवकं नमामि लक्ष्मणप्रियं दिनेशवंशभूषणस्य मुद्रीकाप्रदर्शकम् ।
विदेहजातिशोकतापहारिणम् प्रहारिणम् सुसूक्ष्मरूपधारिणं नमामि दीर्घरूपिणम् ॥ ७॥
नभस्वदात्मजेन भास्वता त्वया कृता महासहा यता यया द्वयोर्हितं ह्यभूत्स्वकृत्यतः ।
सुकण्ठ आप तारकां रघूत्तमो विदेहजां निपात्य वालिनं प्रभुस्ततो दशाननं खलम् ॥ ८॥
इमं स्तवं कुजेऽह्नि यः पठेत्सुचेतसा नरः
कपीशनाथसेवको भुनक्तिसर्वसम्पदः ।
प्लवङ्गराजसत्कृपाकताक्षभाजनस्सदा
न शत्रुतो भयं भवेत्कदापि तस्य नुस्त्विह ॥ ९॥
नेत्राङ्गनन्दधरणीवत्सरेऽनङ्गवासरे ।
लोकेश्वराख्यभट्टेन हनुमत्ताण्डवं कृतम् ॥ १०॥
||इति श्री हनुमत्ताण्डव स्तोत्रम्॥

सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

दक्षिणावर्ती शंख के महत्वपूर्ण उपाय

|| दक्षिणावर्ती शंख के महत्वपूर्ण उपाय ||
तंत्र शास्त्र में दक्षिणावर्ती शंख का विशेष महत्व है। इस शंख को विधि-विधान पूर्वक घर में रखने से कई प्रकार की बाधाएं शांत हो जाती है और धन की भी कमी नहीं होती। दक्षिणावर्ती शंख के अनेक लाभ हैं, लेकिन इसे घर में रखने से पहले इसका शुद्धिकरण अवश्य करना चाहिए।
इस विधि से करें शुद्धिकरण
लाल कपड़े के ऊपर दक्षिणावर्ती शंख को रखकर इसमें गंगाजल भरें और कुश के आसन पर बैठकर इस मंत्र का जप करें-
ऊं श्री लक्ष्मी सहोदराय नम:
इस मंत्र की कम से कम 5 माला जप करें।
ये हैं दक्षिणावर्ती शंख के उपाय
1- दक्षिणावर्ती शंख को अन्न भण्डार में रखने से अन्न, धन भण्डार में रखने से धन, वस्त्र भण्डार में रखने से वस्त्र की कभी कमी नहीं होती। शयन कक्ष में इसे रखने से शांति का अनुभव होता है।
2- इसमें शुद्ध जल भरकर, व्यक्ति, वस्तु, स्थान पर छिड़कने से दुर्भाग्य, अभिशाप, तंत्र-मंत्र आदि का प्रभाव समाप्त हो जाता है।
3- किसी भी प्रकार के टोने-टोटके इस शंख के आगे निष्फल हो जाते हैं। दक्षिणावर्ती शंख जहां भी रहता है, वहां धन की कोई कमी नहीं रहती।
4- इसे घर में रखने से सभी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा स्वतः ही समाप्त हो जाती है और घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रसार होता है।

नवरात्रि विशेष : हत्था जोड़ी

नवरात्रि विशेष : हत्था जोड़ी
अगर आपको स्टॉक मार्किट में फैयदा नहीं हो रहा है या मेहनत करने पर भी धन की प्राप्ति नहीं होती काम बिगड़ जाते है ,अगर व्यापार न चल पा रह हो यां जीवन में उन्नति न हो पा रही हो ,कई बार इर्षा के कारण कुछ लोग तंत्र प्रयोग कर देते हैं जिससे दूकान में ग्राहक नहीं आते यां कार्य सफल नहीं होते.
यह हत्था जोड़ी बहुत ही शक्तिशाली व प्रभावकारी तांत्रिक वस्तु है ।मुकदमा ,शत्रु संघर्ष ,दरिद्रता ,व दुर्लभ आदि के निवारण में इसके जैसी चमत्कारी वस्तु आज तक देखने में नही आई इसमें वशीकरण को भी अदुभूत शक्ति है , भूत दृप्रेत आदि का भय नही रहता यदि इसे नवरात्रि / शुभ दिन में तांत्रिक विधि से सिध्द कर दिया जाए तो साधक निष्चित रूप से चामुण्डा देवी का कृपा पात्र हो जाता है यह जिसके पास होती है उसे हर कार्य में सफलता मिलती है धन संपत्ति देने वाली यह बहुत चमत्कारी साबित हुई है तांत्रिक वस्तुओं में यह महत्वपूर्ण है ।
हत्था जोड़ी में अद्भुत प्रभाव निहित रहता है, यह साक्षात चामुंडा देवी का प्रतिरूप है. हत्था जोड़ी से सम्मोहन, वशीकरण, अनुकूलन, सुरक्षा ,शत्रु दमन तथा मुकदमो में विजय हासिल होती है !
तिजोरी में सिन्दूर युक्त हत्था जोड़ी रखने से आर्थिक लाभ में वृद्धि होने लगती है.
कभी धन की याचना नहीं करनी पड़ती अपितु धन उसकी और स्वयं ही आकर्षित होता रहता है …और धन-सम्पति, वशीकरण, शत्रु शमन मे व्यक्ति सशक्त हो जाता है l जिस व्यक्ति के पास यह होती है l उसे किसी बात कि कमी नहीं होती l उसकी लगभग सभी इछचाये पूर्ण हो जाती है l

घर में नहीं हो रही है बरकत तो करे ये उपाय :-

घर में नहीं हो रही है बरकत तो करे ये उपाय :-
किसी के पास पैसा है तो शांति और सुख नहीं है| किसी के पास सुख शांति है तो पैसा नहीं है मतलब हर कोई किसी ना किसी तरीके से परेशान ही है| इसीलिये कुछ ऐसे उपाय बताना चाहते है जिसको अपने जीवन में लाने से आपको कभी धन और सुख समृद्धि की कमी नहीं होगी और दिनों दिन आपका खज़ाना बढ़ेगा ही|
आइये जानते है उपाय:
• घर की स्त्री का सम्मान करें।

• दक्षिण दिशा में पैर करके न सोएं|
• जितना हो सके दान करे| और हमरे हिन्दू शास्त्रो मे अन्न दान को सबसे बड़ा दान बताया गया है| जितना हो सके अन्न का दान करे| क्युकी प्रकृति का यह नियम है कि आप जितना देते हैं वह उसे दोगुना करके लौटा देती है।
• अग्निहोत्र करने से भी बहुत बरकत होती है| अग्निहोत्र मतलब जब भी भोजन खाएं उससे पहले उसे अग्नि को अर्पित करें। अग्नि द्वारा पकाए गए अन्न पर सबसे पहला अधिकार अग्नि का ही होता है।
• नल से पानी का टपकना आर्थिक क्षति का संकेत है। अगर आपके भी घर में भी ऐसा है तो टपकते नल को जल्द से जल्द ठीक करवाएं।
• वॉशरूम को गीला रखना आर्थिक स्थिति के लिए बेहतर नहीं होता है।
• घर में क्रोध, कलह और रोना-धोना आर्थिक समृद्धि व ऐश्वर्य का नाश कर देता है इसलिए घर में कलह-क्लेश पैदा न होने
• घर में जितना हो सके सफाई रखे| घर के चारों कोने साफ हों, खासकर ईशान, उत्तर और वायव्य कोण को हमेशा खाली और साफ रखें।
• घर में सीढ़ियों को पूर्व से पश्चिम या उत्तर से दक्षिण की ओर ही बनवाएं। कभी भी उत्तर-पूर्व में सीढ़ियां न बनवाएं।
• तिजोरी में हल्दी की कुछ गांठ एक पीले वस्त्र में बांधकर रखें। साथ में कुछ कौड़ियां और चांदी, तांबे आदि के सिक्के भी रखें। कुछ चावल पीले करके तिजोरी में रखें।
• घर में देवी-देवताओं पर चढ़ाए गए फूल या हार के सूख जाने पर भी उन्हें घर में रखना अलाभकारी होता है।
• यदि आप अपार धन की इच्छा रखते हैं तो सबसे पहले हनुमानजी से अपने पापों की क्षमा मांगकर प्रतिदिन हनुमान चालीसा पढ़ते हुए 5 मंगलवार बढ़ के पत्ते पर आटे का दीया जलाकर उनके मंदिर में रखकर आएं।
• कर्पूर अति सुगंधित पदार्थ होता है तथा इसके दहन से वातावरण सुगंधित हो जाता है। कर्पूर जलाने से देवदोष व पितृदोष का शमन होता है। अतः घर में सुबह शाम आरती में कपूर जलाये|

स्कंदमाता पांचवा नवरात्रा:-

स्कंदमाता पांचवा नवरात्रा:-
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नवरात्र पर पांचवे दिन माँ के स्कंदमाता के रूप की पूजा की जाती है l स्कंदमाता भगवान कार्तिकेय की माँ है | नौ ग्रहों की शांति के लिए स्कंदमाता की खास पूजा अर्चना की जाती है l ऐसामन जाता है कि नवरात्र के पांचवे दिन स्कंदमाता को खुश करने से बुरी ताकतों का नाश होता है और बुरी नज़र से मुक्ति मिलती है l देवी के इस रूप कि पूजा से असंभव काम भी संभव हो जाते हैं l 


उपाय (1) :-विवाह में आने वाली बाधा दूर करने के लिए ये उपाय बहुत ही कारगर है | 36 लौंग और 6 कपूर के टुकड़े लें | इसमे हल्दी और चावल मिलाकर इससे माँ दुर्गा को आहुति दें

उपाय (2) :-अगर आपको संतान की प्राप्ति नहीं हो रही है तो आप लौग और कपूर में आनार के दाने मिला कर माँ दुर्गा को आहुति दें जरुर लाभ होगा | संतान प्राप्ति का सुख मिलेगा |

उपाय (3) :-अगर आप का कारोबार ठीक से नहीं चल रहा है तो दूर करने के लिए लौंग और कपूर में अमलताश के फूल मिलाएं ,अगर अमलताश नहीं है तो कोई भी पीला फूल मिलाएं और माँ दुर्गा को आहुति दें आपका बिजनेस खूब फलेगा

उपाय (4) :-जिन लोगों की विदेश यात्रा में कठिनाई या बाधा आ रही है |वो मूली के टुकड़ों को हवन सामग्री में मिला लें और हवन करें | विदेश यात्रा का योग बनेगा।

कैसे करें नवरात्रि की महाष्टमी पर चंडी हवन

कैसे करें नवरात्रि की महाष्टमी पर चंडी हवन
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यूं तो चंडी हवन किसी भी दिन व किसी भी समय संपन्न हो सकता है। लेकिन महाष्टमी के दिन हवन से पहले कुंड का पंचभूत संस्कार करें।

सर्वप्रथम कुश के अग्रभाग से वेदी को साफ करें। कुंड का लेपन करें गोबर जल आदि से। तृतीय क्रिया में वेदी के मध्य बाएं से तीन रेखाएं दक्षिण से उत्तर की ओर पृथक-पृथक खड़ी खींचें, चतुर्थ में तीनों रेखाओं से यथाक्रम अनामिका व अंगूठे से कुछ मिट्टी हवन कुण्ड से बाहर फेंकें। पंचम संस्कार में दाहिने हाथ से शुद्ध जल वेदी में छिड़कें। पंचभूत संस्कार से आगे की क्रिया में अग्नि प्रज्वलित करके अग्निदेव का पूजन करें।
इन मंत्रों से शुद्ध घी की आहुति दें : -

ॐ प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये न मम।
ॐ इन्द्राय स्वाहा। इदं इन्द्राय न मम।
ॐ अग्नये स्वाहा। इदं अग्नये न मम।
ॐ सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय न मम।
ॐ भूः स्वाहा। इदं अग्नेय न मम।
ॐ भुवः स्वाहा। इदं वायवे न मम।
ॐ स्वः स्वाहा। इदं सूर्याय न मम।
ॐ ब्रह्मणे स्वाहा। इदं ब्रह्मणे न मम।
ॐ विष्णवे स्वाहा। इदं विष्णवे न मम।
ॐ श्रियै स्वाहा। इदं श्रियै न मम।
ॐ षोडश मातृभ्यो स्वाहा। इदं मातृभ्यः न मम॥


नवग्रह के नाम या मंत्र से आहुति दें। गणेशजी की आहुति दें। सप्तशती या नर्वाण मंत्र से जप करें। सप्तशती में प्रत्येक मंत्र के पश्चात स्वाहा का उच्चारण करके आहुति दें। प्रथम से अंत अध्याय के अंत में पुष्प, सुपारी, पान, कमल गट्टा, लौंग 2 नग, छोटी इलायची 2 नग, गूगल व शहद की आहुति दें तथा पांच बार घी की आहुति दें। यह सब अध्याय के अंत की सामान्य विधि है।

तीसरे अध्याय में गर्ज-गर्ज क्षणं में शहद से आहुति दें। आठवें अध्याय में मुखेन काली इस श्लोक पर रक्त चंदन की आहुति दें। पूरे ग्यारहवें अध्याय की आहुति खीर से दें। इस अध्याय से सर्वाबाधा प्रशमनम्‌ में कालीमिर्च से आहुति दें। नर्वाण मंत्र से 108 आहुति दें।

शनिवार, 17 अक्टूबर 2015

नवरात्रि : किस कन्या के पूजन का क्या मिलेगा फल

नवरात्रि : किस कन्या के पूजन का क्या मिलेगा फल
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हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार शारदीय नवरात्रि में कन्या पूजन का विशेष महत्व माना गया है। खास तौर पर अ‍ष्टमी तथा नवमी तिथि को 3 से 9 वर्ष तक की कन्याओं का पूजन करने की परंपरा है। यह कन्याएं साक्षात मां दुर्गा का स्वरूप मानी जाती है। जानिए नवरात्रि में इन कन्याओं के पूजन से क्या लाभ प्राप्त होता है :-
* दो वर्ष की कन्या को कौमारी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इसके पूजन से दुख और दरिद्रता समाप्त हो जाती है।
* तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति मानी जाती है। त्रिमूर्ति के पूजन से धन-धान्य का आगमन और संपूर्ण परिवार का कल्याण होता है।
* चार वर्ष की कन्या कल्याणी नाम से संबोधित की जाती है। कल्याणी की पूजा से सुख-समृद्धि मिलती है।
* पांच वर्ष की कन्या रोहिणी कही जाती है। रोहिणी की पूजन से व्यक्ति रोग मुक्त होता है।
* छह और सात वर्ष की कन्या चण्डिका के पूजन से ऐश्वर्य मिलता है।
* आठ वर्ष की कन्या शाम्भवी की पूजा से लोकप्रियता प्राप्त होती है।
* नौ वर्ष की कन्या दुर्गा की अर्चना से शत्रु पर विजय मिलती है तथा असाध्य कार्य सिद्ध होते हैं।

गुरुवार, 15 अक्टूबर 2015

नवरात्रों में करें गणेशजी के इस मंत्र का स्मरण, तुरंत बनेंगे सारे काम

नवरात्रों में करें गणेशजी के इस मंत्र का स्मरण, तुरंत बनेंगे सारे काम
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बुधवार को गणेश जी की पूजा की जाती है। हिन्दू धर्म के मुताबिक भगवान गणेश जी को सिद्धि और मंगलकारी शक्तियों का स्वरूप माना जाता है। इसीलिए हर शुभ काम की शुरूआत भगवान गणेश जी की आरती के साथ की जाती है। बुधवार के दिन गणेश जी की उपासना करने से सुखी सांसारिक जीवन की मनोकामना पूरी होती है।
ऐसे में यदि नवरात्रि के दिनों में आने वाले बुधवार को उनका मंत्र जपें तो सभी समस्याएं कुछ ही क्षणों में दूर हो जाती हैं। आज के भागदौड़ भरे जीवन या फिर महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की कवायद में कई धार्मिक आस्था रखने वाले लोग देव स्मरण चाहकर भी नहीं कर पाते। इसलिए यहां बताया जा रहा है श्रीगणेश पूजा का चंद मिनटों का उपाय, जिसे खासतौर पर जल्द सुख-सफलता की आस रखने वाले ऎसे लोग समय की कमी होने पर भी अपना सकते हैं।
कैसे करें नवरात्रों में गणेशजी की पूजा
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विघ्नहर्ता गणेश पूजा का यह उपाय जीवन में आने वाली अनचाही परेशानियों से बचाने वाला भी माना गया है। भगवान श्रीगणेश की उपासना के लिए बुधवार का बहुत महत्व है। इसलिए जल्द और लगातार सफलता के लिए भगवान गणेशजी का स्मरण करें। सुबह स्नान के बाद देवालय या भगवान श्रीगणेश की प्रतिमा या फिर तस्वीर के सामने यह मंत्र बोल कर धूप या अगरबत्ती लगाएं -
वनस्पतिरसोद्भूतो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तम:। आघ्रेय सर्वदेवानां धूपो यं प्रतिगृह्यताम।।
धूप या अगरबत्ती से आरती कर व लड्डू का भोग लगा इस मंत्र से गणेशजी का ध्यान कर लें
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अभीप्सितार्थसिद्धयथंü पूजितो य: सुरासुरै:। सर्वविघ्रहरस्तस्मै गणाधिपतये नमो नम:।।
इसके बाद भगवान श्रीगणेश को प्रणाम कर दिन और काम बिन बाधा पूरा होने की कामना करें। यह उपाय आप कार्यस्थल पर भी पवित्रता का ध्यान रखते हुए अपना सकते हैं।
गणेश जी की उपासना का विशेष मंत्र
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यदि आप तांत्रिक मंत्रों का आश्रय नहीं लेना चाहते हैं तो इसके लिए वेदो में एक मन्त्र भी बताया गया है।
ऊं गणानां त्वा गणपति(गुँ) हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति(गुँ) हवामहे, निधीनां त्वा निधिपति(गुँ)हवामहे व्वसो मम।
बुधवार को सुबह या शाम के वक्त इस मंत्र का ध्यान गणेश जी को सिंदूर, अक्षत, दूर्वा चढ़ाकर व यथाशक्ति लड्डूओं का भोग लगाकर कार्यसिद्धि की कामनाओं के साथ करें व धूप व दीप आरती करें। इस मन्त्र में भगवान गणेश जी और ऋद्धि-सिद्धि का स्मरण है, जिससे जीवन में अपार सुख-समृद्धि आती है।

बुधवार, 14 अक्टूबर 2015

देवी-देवता को कौन सा फूल अति प्रिय है

किस देवी-देवता को कौन सा फूल अति प्रिय है. मान्यता है कि प्रभु के प्रिय फूल को चढ़ाने से वह शीघ्र प्रसन्न होते हैं और भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं. देवों के इस श्रेणी में सबसे पहले पूजे जाने वाले श्री गणेशजी की बात करते हैं.
भगवान गणेश -
देवों में सर्वप्रथम भगवान गणेशजी को तुलसी छोड़कर हर तरह के फूल पसंद है. खास बात यह है कि गणपति को दूब अधिक प्रिय है. दूब की फुनगी में 3 या 5 पत्त‍ियां हों, तो ज्यादा अच्छा रहता है. ध्यान रहे कि गणेशजी पर तुलसी कभी न चढ़ाएं.
भगवान महादेव -
भोले बाबा को सभी सुगंधित पुष्प पंसद हैं. चमेली, श्वेत कमल, शमी, मौलसिरी, पाटला, नागचंपा, शमी, खस, गूलर, पलाश, बेलपत्र, केसर उन्हें खास प्रिय हैं. धतूरा और बेलपत्र महादेव को खास प्रिय हैं.
भगवान विष्णु -
यदि आप भगवान विष्णु के भक्त हैं तो उन्हें तुलसी अर्पित करें. भगवान विष्णु को तुलसी बहुत पसंद है. काली तुलसी और गौरी तुलसी, उन्हें दोनों ही पंसद हैं. तुलसी के साथ कमल, बेला, चमेली, गूमा, खैर, शमी, चंपा, मालती, कुंद आदि फूल विष्णु को प्रिय हैं.
हनुमान -
महावीर हनुमानजी को लाल फूल चढ़ाना ज्यादा अच्छा रहता है. वैसे उन्हें कोई भी सुगंधित फूल चढ़ाया जा सकता है.
सूर्य -
भगवान सूर्य को आक का फूल सबसे ज्यादा प्रिय है. मान्यता है कि अगर सूर्य को एक आक का फूल अर्पण कर दिया जाए, तो सोने की 10 अशर्फियां चढ़ाने का फल मिल जाता है. उड़हुल, कनेल, शमी, नीलकमल, लाल कमल, बेला, मालती आदि चढ़ाए है. ध्यान रहे कि सूर्य पर धतूरा, अपराजिता, अमड़ा और तगर कभी न चढ़ाएं.
माता गौरी और दुर्गा -
आम तौर पर भगवान शंकर को जो भी फूल पसंद हैं, देवी पार्वती को वे सभी फूल चढ़ाए जा सकते हैं. सभी लाल फूल और सुगंधित सभी सफेद फूल भगवती को विशेष प्रिय हैं. बेला, चमेली, केसर, श्वेत कमल, पलाश, चंपा, कनेर, अपराजित आदि फूलों से भी देवी की पूजा की जाती है. आक और मदार के फूल केवल दुर्गाजी को ही चढ़ाना चाहिए, अन्य किसी देवी को नहीं. दुर्गाजी पर दूब कभी न चढ़ाएं. लक्ष्मीजी को कमल का फूल चढ़ाने का विशेष महत्व है.



मां के जितने भी रूप हैं सभी के अपने-अपने गुण एवं कर्म हैं। मां के ज‌िस रूप की कृपा पाना चाहते हैं मां के उस रूप की पसंद के अनुसार फूल अर्प‌ित करके उनकी पूजा करें। इससे माता की अनुकंपा जल्दी मिलती है।
काली एवं कालरात्रि का प्रिय फूल
माता काली एवं कालरात्रि को गुरहल का फूल बहुत पसंद है। इन्हें 108 लाल गुरहुल का फूल अर्पित करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।
दुर्गा मां का प्रिय फूल
दुर्गा मां को भी लाल फूल पसंद है। इन्हें खुश करने के लिए लाल गुलाब या लाल गुरहुल के फूल की माला पहनाएं। आर्थिक परेशानियां दूर होगी।
सरस्वती मां का प्रिय फूल
मां सरस्वती शांत एवं सौम्य मूर्ति हैं। इन्हें प्रसन्न करने के लिए सफेद अथवा पीले रंग का फूल चढ़ाएं। सफेद गुलाब, सफेद कनेर, चम्पा एवं गेंदे के फूल से मां खुश होती हैं। इससे ज्ञान एवं बौद्घिक क्षमता बढ़ती है। माता ब्रह्मचारिणी को भी यह फूल पसंद है।
लक्ष्मी मां का प्रिय फूल
माता लक्ष्मी सौभाग्य एवं सम्पदा की प्रतिमूर्ति हैं। इन्हें लाल फूल पसंद है। लक्ष्मी माता की कृपा पाने के लिए इन्हें कमल का फूल अथवा गुलाब का फूल अर्पित करें। भगवान विष्णु की अर्धांगिनी होने के कारण लक्ष्मी माता पीले रंग के फूल से भी खुश होती हैं। जल में उत्पन्न होने के कारण कमल कमल फूल माता को सबसे अधिक प्रिय है क्योंकि लक्ष्मी स्वयं जल (सागर) से प्रकट हुई हैं।
गौरी माता एवं शैलपुत्री का प्रिय फूल
माता गौरी एवं शैलपुत्री को सफेद एवं लाल पुष्प पसंद है। सुहागन स्त्रियों को लाल फूल से मां की पूजा करनी चाहिए। इससे सुहाग की उम्र बढ़ती है। कुंवारी कन्याओं को भी लाल रंग के फूल से ही मां की पूजा करनी चाह‌िए।

आपकी राशि और उपासना

आपकी राशि और दश महाविद्या
राशि देवी मंत्र जाप
मेष तारा ॐश्रीं ह्रीं स्त्रीं हूं फट
वृष षोडशी ॐ ह्रीं क ए ई ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं
मिथुन भुवनेश्वरी ॐ ऐं ह्रीं श्रीं
कर्क कमला ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं हसौ: जगत्प्रसूत्यैनम:
सिंह बगलामुखी ॐ ह्रीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिव्हां कीलय बुद्धिं नाशय ह्रीं ॐ स्वाहा
कन्या भुवनेश्वरी ॐ ऐं ह्रीं श्रीं
तुला षोडशी ॐ ह्रीं क ए ई ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं
वृश्चिक तारा ॐश्रीं ह्रीं स्त्रीं हूं फट
धनु कमला ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं हसौ: जगत्प्रसूत्यैनम:
मकर काली ॐ क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा
कुंभ काली ॐ क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा
मीन कमला ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं हसौ: जगत्प्रसूत्यैनम:


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आपकी राशि और उपासना
राशि देवी मंत्र जाप
मेष माँ चंद्रघंटा देवी ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे ॐ चंद्रघंटा देव्यै नम:
वृष माँ कात्यायनी देवी ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे ॐ कात्यायनी देव्यै नम:
मिथुन माँ कूष्माण्डा देवी ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे ॐ कुष्माण्डा देव्यै नम:
कर्क माँ ब्रह्मचारिणी देवी ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे ॐ ब्रह्मचारिणी देव्यै नम:
सिंह माँ शैलपुत्री देवी ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे ॐ ब्रह्मचारिणी देव्यै नम:
कन्या माँ कूष्माण्डा देवी ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे ॐ कुष्माण्डा देव्यै नम:
तुला माँ कात्यायनी देवी ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे ॐ कात्यायनी देव्यै नम:
वृश्चिक माँ चंद्रघंटा देवी ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे ॐ चंद्रघंटा देव्यै नम:
धनु माँ स्कंद माता देवी ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे ॐ स्कंदमाता देव्यै नम:
मकर माँ कालरात्रि देवी ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे ॐ कालरात्रि देव्यै नम:
कुंभ माँ कालरात्रि देवी ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे ॐ कालरात्रि देव्यै नम:
मीन माँ स्कंद माता देवी ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे ॐ स्कंदमाता देव्यै नम:

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देवी भागवत
(स्कंध 11, अध्याय 12) में लिखा है
कि विभिन्न प्रकार के रसों से देवी दुर्गा का अभिषेक किया जाए तो माता अति प्रसन्न होती हैं और भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करती हैं। आज हम आपको बता रहे हैं किस रस से देवी का अभिषेक किया जाए तो उसका क्या फल प्राप्त होता है-
- देवी भागवत के अनुसार वेद पाठ के साथ यदि कर्पूर, अगरु (सुगंधित वनस्पति), केसर, कस्तूरी व कमल के जल से देवी दुर्गा को स्नान करवाया जाए तो सभी प्रकार के पापों का नाश हो जाता है तथा साधक को थोड़े प्रयासों से ही सफलता मिलती है। ये उपाय बहुत ही चमत्कारी है।
- देवी भागवत के अनुसार यदि माता दुर्गा को दूध से स्नान करवाया जाए तो व्यक्ति सभी प्रकार की सुख-समृद्धि का स्वामी बनता है।
- माता जगदंबिका को गन्ने के रस से स्नान करवाया जाए तो लक्ष्मी और सरस्वती ऐसे भक्त का घर छोड़कर कभी नहीं जातीं। वहां नित्य ही संपत्ति और विद्या का वास रहता है।

दस महाविद्या साधना नवरात्री में

प्रथम दिन की महा देवी काली स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को उत्तर की ओर मुख करके करनी चाहिए
इनका महा मंत्र – क्रीं ह्रीं काली ह्रीं क्रीं स्वाहा:
इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।
दस महाविद्या की साधना करनेवाले सभी साधको को ९ दिन फलहार में रहना चाहिए तथा किसी एक रंग के वस्त्र को नौ दिन धारण करना चाहिए। रंगों में तीन रंग प्रमुख हैं- काला (उत्तम ), लाल (मध्य ), सफ़ेद (निम्न)। इस प्रकार का साधना विशेष साधको के लिए है। परन्तु सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस म़हामंत्र का जाप 108 बार करें तो उनके घरमें सुख शान्ति बनी रहती है और आकाल मृत्यु नही होती है.
द्वितीय दिन: माँ तारा की साधना.


दूसरे दिन की महा देवी माँ तारा स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को ईशान कोने की ओर मुख करके करनी चाहिए। ईशान कोन उत्तर पूर्व दिशा के बीच के कोन को कहते हैं.
इनका महा मंत्र -क्रीं ह्रीं तारा ह्रीं क्रीं स्वाहा.
इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।
सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें तो उनके पुत्र के कष्टों का नाश होता है. अथवा अगर पुत्रहीन स्त्रियाँ यह जाप करें तो उन्हे पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इस मन्त्र के जाप से दुश्मनों पर विजय की प्राप्ति भी होती है.


तीसरा दिन: माँ भुवनेश्वरी
तीसरे दिन की महा देवी माँ भुवनेश्वरी स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को पूरब की ओर मुख करके करनी चाहिए।
इनका महा मंत्र क्रीं ह्रीं भुवनेश्वरी ह्रीं क्रीं स्वाहा.
इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।
सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम १०८ -१०८ बार इस मंत्र का जाप करें तो भुवन के सभी प्रकार की सुख सुविधाएँ उसे प्राप्त होती हैं तथा दरिद्र व्यक्तियों का इनकी आराधना करना सबसे उचित माना गया है.


चौथा दिन- माँ षोडशी
चौथा दिन की महा देवी माँ षोडशी स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को अग्नि कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए। अग्नि कोन पूर्व दक्षिण दिशा के बीच के कोन को कहते हैं।-क्रीं ह्रीं षोडशी ह्रीं क्रीं स्वाहा: इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें तो उनका यौवन बना रहता है तथा उस व्यक्ति मैं आकर्षण की शक्ति बढती है। साथ ही साथ जो पुरूष या महिला इस मंत्र का जाप करते हैं उन्हें कार्तिक के सामान वीर पुत्र की प्राप्ति होती है।


पांचवा दिन: माँ छिन्मस्तिका काली
पांचवा दिन की महा देवी माँ छिन्मस्तिका काली स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को दक्षिण कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए। इनका महा मंत्र -क्रीं ह्रीं छिन्मस्तिका ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें तो दुष्टों का नाश होता है तथा उस व्यक्ति के तमो गुन और रजो गुन का भी नाश होता है। साथ ही साथ जो पुरूष या महिला इस मंत्र का जाप करते हैं उनके काम वासना को नियंत्रित करता है.


छठा दिन: माँ भैरवी
छठे दिन की महा देवी माँ भैरवी स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को नैरित कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए।नैरित कोण दक्षिण और पश्चिम दिशा के बीच का कोण होता है।इनका महा मंत्र -क्रीं ह्रीं भैरवी ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें तो दुष्टों का नाश होता है तथा अकाल मृत्यु , दुष्टात्मा के प्रभाव से बचाव होता है


सातवाँ दिन: माँ धूमावती
सातवें दिन की महा देवी माँ धूमावती स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को पश्चिम कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए। इनका महा मंत्र – क्रीं ह्रीं धूमावती ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें तो उनके घर से रोग, कलह, दरिद्रता का नाश होता है.


आठवां दिन: माँ बंगलामुखी
आठवे दिन की महा देवी माँ बंगलामुखी स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को भंडार कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए। भंडार कोण पश्चिम और उत्तर दिशा के बीच का कोण होता है।इनका महा मंत्र – क्रीं ह्रीं बंगलामुखी ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें। माँ बंगलामुखी का जाप ऐसे व्यक्ति को करना चाहिए जिनके ऊपर किसी तांत्रिक क्रिया को कराया जा रहा हो और जिस से वो परेशान हो। इस मंत्र का जाप करने से वैसे दुष्ट व्यक्तियों का नाश होता है। इनका जाप करते समय साधक को पीला वस्त्र धारण करना चाहिए और पीले माला से जाप करना चाहिए। उस माला को जाप ख़त्म होने के बाद किसी पीपल के पेड़ पर टांग देना चाहिए.


नौवां दिन: माँ मातंगी
नौवे दिन की महा देवी माँ मातंगी स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को पृथ्वी की ओर मुख करके करनी चाहिए। इनका महा मंत्र – क्रीं ह्रीं मातंगी ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें। माँ मातंगी का जाप ऐसे व्यक्ति को करना चाहिए जिनके जीवन में माता के प्रेम की कमी हो अथवा उनकी माता को कोई कष्ट हो। जो किसान आकाल या बाढ़ से पीड़ित होते है वे भी माँ मातंगी का अगर सामूहिक रूप से जाप करे तो अकाल या बढ़ का प्रभाव कम होता है.


दसवां दिन: माँ कमला
दसवें दिन की महा देवी माँ कमला स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को आकाश की ओर मुख करके करनी चाहिए।इनका महा मंत्र – क्रीं ह्रीं कमला ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें। माँ कमला का जाप दसो महाविद्या में सबसे श्रेष्ठ बताया गया है। इनका जाप करने वाले जीवन में कभी भी दरिद्र नही होते। शास्त्रों में कहा गया है की जो माँ कमला की साधना करते हैं उन्हे सभी प्रकार के भौतिक सुख प्राप्त होते हैं।

नवरात्र में भगवती को लगाए जाने वाले भोग

नवरात्र में भगवती को लगाए जाने वाले भोग
नवरात्र का पहला दिन माँ शैलपुत्री का- इस दिन भगवती जगदम्बा की गोघृत से पूजा होनी चाहिये अर्थात् षोडशोपचार से पूजन करके नैवेद्य के रूप में उन्हें गाय का घृत अर्पण करना चाहिये एवं फिर वह घृत ब्राह्मण को दे देना चाहिये। इसके फलस्वरूप मनुष्य कभी रोगी नहीं हो सकता।
नवरात्र का दूसरा दिन माँ ब्रह्मचारिणी का- इस दिन पूजन करके भगवती जगदम्बा को चीनी का भोग लगावे और ब्राह्मण को दे दें। यों करने से मनुष्य दीर्घायु होता है।
नवरात्र का तीसरा दिन माँ चंद्रघण्टा का- भगवती की पूजा में दूध की प्रधानता होती चाहिये एवं पूजन के उपरान्त वह दूध किसी ब्राह्मण को दे देना उचित है। यह सम्पूर्ण दु:खों से मुक्त होने का एक परम साधन है।
नवरात्र का चौथा दिन माँ कूष्माण्डा का- इस दिन मालपूआ का नैवेद्य अर्पण किया जाय और फिर वह योग्य ब्राह्मण को दे दिया जाय। इस अपूर्व दानमात्र से ही किसी प्रकार के विघ् सामने नहीं आ सकते।
नवरात्र का पांचवां दिन माँ स्कंदमाता का- इस दिन पूजा करके भगवती क ो केले का भोग लगाये और वह प्रसाद ब्राह्मण को दे दें, ऐसा करने से पुरुष की बुद्धि का विकास होता है।
नवरात्र का छठा दिन माँ कात्यायनी का- इस दिन देवी के पूजन में मधु का महत्त्व बताया गया है। वह मधु ब्राह्मण अपने उपयोग में ले। इसके प्रभाव से साधक सुन्दर रूप प्राप्त करता है।
नवरात्र का सातवां दिन माँ कालरात्रि का- इस दिन भगवती की पूजा में गुड़ का नैवेद्य अर्पण करके ब्राह्मण को दे देना चाहिये। ऐसा करने से पुरुष शोकमुक्त हो सकता है।
नवरात्र का आठवां दिन माँ महागौरी का- इस दिन भगवती को नारियल का भोग लगाना चाहिये। फिर नैवेद्य रूप वह नारियल ब्राह्मण को दे देना चाहिये। इसके फलस्वरूप उस पुरुष के पास किसी प्रकार के संताप नहीं आ सकते।
नवरात्र का नौवां दिन माँ सिध्दिदात्री का- इस दिन भगवती को धान का लावा अर्पण करके ब्राह्मण को दे देना चाहिये। इस दान के प्रभाव से पुरुष इस लोक और परलोक में भी सुखी रह सकता है।

नव दुर्गा साधना

मन्त्र जप बिना योग्य निर्देशन न करे..
नव दुर्गा साधना :--

1 शैलपुत्री जो त्रैलोक्य मोहन कार्य अर्थात तीनो लोको को मोहित कर देने वाली शक्ति है ..
मंत्र ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं सर्वजन मनोहारिणी नमः स्वाहा

2 ब्रह्मचारिणी जो समस्त इच्छाओ को पूरण करने वाली शक्ति है ..
मंत्र ऐं क्लीं सौः कामेश्वरीच्छा काम फल प्रदे देवी नमः स्वाहा

3 चन्द्रघंटा जो समस्त प्रकार की पापो का हनन करने वाली शक्ति है ..
मंत्र श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं सर्वपापसंहारिके देवी नमः स्वाहा

4 कुष्मांडा जो सर्व सौभाग्य प्रदान करने वाली शक्ति है ..
मंत्र ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौः सर्व सौभाग्य प्रदायिनी देवी नमः स्वाहा

5 स्कन्दमाता जो समस्त प्रकार की कार्य को सिद्धि करने वाली शक्ति है चाहे वो शांति कर्म हो या मारण कर्म..
मंत्र ऐं ईं हौं सः कामत्रिपुराय नमः स्वाहा

6 कात्यानी जो सर्व प्रकार की रक्षा करने वाली शक्ति है ..
मंत्र ॐ ह्रीं महायक्षीश्वरी रक्षय रक्षय मम शत्रुनाम भक्षय भक्षय स्वाहा

7काल रात्रि जो समस्त प्रकार की रोग नाश करने वाली शक्ति है ..
मंत्र ॐ कालि कालि काल रात्रिके मम सर्व रोगान छिन्धि छिन्धि भिन्दी भिन्दी भक्षय भक्षय नमः स्वाहा

8 महागौरी जो समस्त प्रकार की आनंद को देने वाली शक्ति है..
मंत्र ह्रीं क्लीं ॐ सर्व आनंद प्रदायिने नित्य मदद्रवे स्वाहा

9 सिद्धिदात्री जो समस्त प्रकार की सिद्धि प्रदान करने वाली है ..
मंत्र स्त्रीं हूँ फट क्लीं ऐं तुरे तारे कुल्ले कुरु कुल्ले नमः स्वाहा




इन शक्तिओ की मंत्र साधना आप नव रात्र के दौरान कर सकते है ..
विधान व सामग्री ..............
लाल वस्त्र आसनी ..दिशा उत्तर .. माला रुद्राक्ष की या लाल चन्दन की गले में रुद्राक्ष होना अनिर्वार्य है ..
माँ दुर्गा के चित्र के सामने नौ दीपक शुद्ध घी के प्रज्वलित कर उन दीपकों को नव दुर्गा स्वरुप मान कर नौ दिन लगातार इन्ही दीपकों को प्रज्वलित करे और गुरु पूजन आज्ञा लेकर बिना संकल्प लिए यह साधना करना होता है ...दीपक बदलना नहीं बस बत्ती छोटा हो जाय तो उसे बदल दीजियेगा

इन 9 औषधियों में विराजती है नवदुर्गा
मां दुर्गा नौ रूपों में अपने भक्तों का कल्याण कर उनके सारे संकट हर लेती हैं। इस बात का जीता जागता प्रमाण है, संसार में उपलब्ध वे औषधियां, जिन्हें मां दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों के रूप में जाना जाता है।
नवदुर्गा के नौ औषधि स्वरूपों को सर्वप्रथम मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के रूप में दर्शाया गया और चिकित्सा प्रणाली के इस रहस्य को ब्रह्माजी द्वारा उपदेश में दुर्गाकवच कहा गया है।
ऐसा माना जाता है कि यह औषधियां समस्त प्राणियों के रोगों को हरने वाली और और उनसे बचा रखने के लिए एक कवच का कार्य करती हैं, इसलिए इसे दुर्गाकवच कहा गया। इनके प्रयोग से मनुष्य अकाल मृत्यु से बचकर सौ वर्ष जीवन जी सकता है।
आइए जानते हैं दिव्य गुणों वाली नौ औषधियों को जिन्हें नवदुर्गा कहा गया है -

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी..

1 प्रथम शैलपुत्री यानि हरड़ -नवदुर्गा का प्रथम रूप शैलपुत्री माना गया है। कई प्रकारकी समस्याओं में काम आने वाली औषधि हरड़, हिमावती है जो देवी शैलपुत्री का ही एक रूप हैं। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है, जो सात प्रकार की होती है।
इसमें हरीतिका (हरी) भय को हरने वाली है।
पथया - जो हित करने वाली है।
कायस्थ - जो शरीर को बनाए रखने वाली है।
अमृता - अमृत के समान
हेमवती - हिमालय पर होने वाली।
चेतकी -चित्त को प्रसन्न करने वाली है।
श्रेयसी (यशदाता)- शिवा कल्याण करने वाली।

2 द्वितीय ब्रह्मचारिणी यानि ब्राह्मी -ब्राह्मी, नवदुर्गा का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी है। यह आयु और स्मरण शक्ति को बढ़ाने वाली, रूधिर विकारों का नाश करने वालीऔर स्वर को मधुर करने वाली है। इसलिए ब्राह्मी को सरस्वती भी कहा जाता है।
यह मन एवं मस्तिष्क में शक्ति प्रदान करती है और गैस व मूत्र संबंधी रोगों की प्रमुख दवा है। यह मूत्र द्वारा रक्त विकारों को बाहर निकालने में समर्थ औषधि है। अत: इन रोगों से पीड़ित व्यक्ति को ब्रह्मचारिणी कीआराधना करना चाहिए।

तृतीयं चंद्रघण्टेति
कुष्माण्डेती चतुर्थकम

3 तृतीय चंद्रघंटा यानि चन्दुसूर-नवदुर्गा का तीसरा रूप है चंद्रघंटा, इसे चन्दुसूर या चमसूर कहा गया है। यह एक ऐसा पौधा है जो धनिये के समान है। इस पौधे की पत्तियों की सब्जी बनाई जाती है, जो लाभदायक होती है।
यह औषधि मोटापा दूर करने में लाभप्रद है, इसलिए इसे चर्महन्ती भी कहते हैं। शक्ति को बढ़ाने वाली, हृदय रोग को ठीक करने वाली चंद्रिका औषधि है। अत: इस बीमारी से संबंधित रोगी को चंद्रघंटा की पूजा करना चाहिए।

4 चतुर्थ कुष्माण्डा यानि पेठा -नवदुर्गा का चौथा रूप कुष्माण्डा है। इस औषधि से पेठा मिठाई बनती है, इसलिए इस रूप को पेठा कहते हैं। इसे कुम्हड़ा भी कहते हैं जो पुष्टिकारक, वीर्यवर्धक व रक्त के विकार को ठीक कर पेट को साफ करने में सहायक है। मानसिकरूप से कमजोर व्यक्ति के लिए यह अमृत समान है। यह शरीर के समस्त दोषों को दूर कर हृदय रोग को ठीक करता है। कुम्हड़ा रक्त पित्त एवं गैस को दूर करता है। इन बीमारी से पीड़ितव्यक्ति को पेठा का उपयोग के साथ कुष्माण्डादेवी की आराधना करना चाहिए।

पंचम स्कन्दमातेति
षष्ठमं कात्यायनीति च

5 पंचम स्कंदमाता यानि अलसी -नवदुर्गा का पांचवा रूप स्कंदमाता है जिन्हें पार्वती एवं उमा भी कहते हैं। यह औषधि के रूप में अलसी में विद्यमान हैं। यह वात, पित्त, कफ, रोगों की नाशक औषधि है।
अलसी नीलपुष्पी पावर्तती स्यादुमा क्षुमा।
अलसी मधुरा तिक्ता स्त्रिग्धापाके कदुर्गरु:।।
उष्णा दृष शुकवातन्धी कफ पित्त विनाशिनी।
इस रोग से पीड़ित व्यक्ति ने स्कंदमाता की आराधना करना चाहिए।

6 षष्ठम कात्यायनी यानि मोइया -नवदुर्गा काछठा रूप कात्यायनी है। इसे आयुर्वेद में कई नामों से जाना जाता है जैसे अम्बा, अम्बालिका, अम्बिका। इसके अलावा इसे मोइया अर्थात माचिका भी कहते हैं। यह कफ, पित्त, अधिक विकार एवं कंठ के रोग का नाश करती है। इससे पीड़ित रोगी को इसका सेवन व कात्यायनी की आराधना करना चाहिए।

सप्तमं कालरात्री
ति महागौरीति चाष्टम

7 सप्तम कालरात्रि यानि नागदौन-दुर्गा का सप्तम रूप कालरात्रि है जिसे महायोगिनी, महायोगीश्वरी कहा गया है। यह नागदौन औषधि केरूप में जानी जाती है। सभी प्रकार के रोगों की नाशक सर्वत्र विजय दिलाने वाली मन एवं मस्तिष्क के समस्त विकारों को दूर करने वालीऔषधि है।
इस पौधे को व्यक्ति अपने घर में लगाने पर घर के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। यह सुख देने वाली एवं सभी विषों का नाश करने वाली औषधि है। इस कालरात्रि की आराधना प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति को करना चाहिए।

8 अष्टम महागौरी यानि तुलसी -नवदुर्गा का अष्टम रूप महागौरी है, जिसे प्रत्येक व्यक्ति औषधि के रूप में जानता है क्योंकि इसका औषधि नाम तुलसी है जो प्रत्येक घर में लगाई जाती है। तुलसी सात प्रकार की होती है- सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरुता, दवना, कुढेरक, अर्जक और षटपत्र। ये सभी प्रकार की तुलसी रक्त को साफ करती है एवं हृदय रोग का नाश करती है।
तुलसी सुरसा ग्राम्या सुलभा बहुमंजरी।
अपेतराक्षसी महागौरी शूलघ्नी देवदुन्दुभि:
तुलसी कटुका तिक्ता हुध उष्णाहाहपित्तकृत् ।
मरुदनिप्रदो हध तीक्षणाष्ण: पित्तलो लघु:।
इस देवी की आराधना हर सामान्य एवं रोगी व्यक्ति को करना चाहिए।

नवमं सिद्धिदात्री च
नवदुर्गा प्रकीर्तिता

9 नवम सिद्धिदात्री यानि शतावरी -नवदुर्गा का नवम रूप सिद्धिदात्री है, जिसे नारायणी याशतावरी कहते हैं। शतावरी बुद्धि बल एवं वीर्य के लिए उत्तम औषधि है। यह रक्त विकार एवं वात पित्त शोध नाशक और हृदय को बल देने वाली महाऔषधि है। सिद्धिदात्री का जो मनुष्य नियमपूर्वक सेवन करता है। उसके सभी कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते हैं। इससे पीड़ित व्यक्ति को सिद्धिदात्री देवी की आराधना करना चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक देवी आयुर्वेद की भाषा में मार्कण्डेय पुराण के अनुसार नौ औषधि के रूप में मनुष्य की प्रत्येक बीमारी को ठीक कर रक्त का संचालन उचित एवं साफ कर मनुष्य कोस्वस्थ करती है।
अत: मनुष्य को इनकी आराधना एवं सेवन करना चाहिए।

विशेष पूजन प्रकार

विशेष पूजन प्रकार
प्रतिपदा से ही पूजक पुरोहित, आचार्य, ब्रह्मा एवं पार्ठकत्ताओं का सविधि वरण किया जाता है। सबके सब नियम पूर्वक अपना कार्य करते हैं। षष्ठी तिथि को बिल्व फल पूजन के लिए पूर्व से ही निर्धारित बिल्व वृक्ष का चयन किया जाता है। बिल्व फल एक ही डाल में जोड़े (दो) होने चाहिए। षष्ठी के सांयकाल गाजे-बाजे व समारोह के साथ बिल्व वृक्ष के नीचे जाकर वृक्ष पूजन और फल पूजन किया जाता है। फलों को पीले वस्त्र में पुष्प, अक्षत, हल्दी की गांठ, साबूत धनिया आदि रखकर बाँध दिया जाता है और उसे निमंत्रण दे दिया जाता है। षष्ठी के दिन ही सरस्वती का आवाहन किया जाता है। लेख है-
मूलेन आवाहयेद्देवी श्रवणेन विसर्जयेत्
षष्ठी तिथि और मूल नक्षत्र में सरस्वती का आवाहन और श्रवण नक्षत्र दशमी तिथि में भगवती का विसर्जन किया जाता है।
सप्तमी तिथि को प्रात: काल ही समारोह के साथ बिल्व वृक्ष के पास जाकर वृक्ष और फलों का पूजन किया जाता है। बिल्व वृक्ष रूप लक्ष्मी से प्रार्थना कर फल काट लेते हैं। ध्यान रहे, फल काटते समय डण्ठल एक ही बार में कट जाय। उसके बाद फलों को किसी विशेष सवारी पर लाकर पूजन स्थल (मन्दिर) के दरवाजे के सामने बाहर में ही स्थान को पवित्र कर चावल से अष्टदल कमल बनाकर उस पर रखकर विधान पूर्वक पूजन करें। पूजन के साथ ही बलिदान का भी विधान है। आस पास के रहने वाले भूत-प्रेतों के लिए भी बलिदान दिया जाता है। पुन: मन्दिर का द्वार पूजन व द्वार देवताओं के लिए बलिदान देकर स्वस्ति वाचन के साथ फल लेकर प्रवेश करें।
बिल्व फल को पूर्व स्थापित सर्वतोभद्रमंडल पर कलश के बगल में रखें। बिल्व फल के साथ ही नव प्रकार के वनस्पतियों के पत्ते यथा धान्य, जयंती, कचु, हल्दी, कदली, अशोक, अनार व मानक के पत्ते नवपत्रिकाओं पर क्रमश: कदली (केले), षट (ब्रह्माणी), अनार-रक्तदंतिका, धान्य-लक्ष्मी, हरिद्रा-दुर्गा, मानक-चामुण्डा, कचुपत्र-कालिका, बिल्वपत्र-शिवा, अशोक-शोक रहिता और जयंती-कातिँकी देवियों का पूजन करना चाहिए। बिल्व फल पर भगवती का आवाहन कर पूजन किया जाता है। इस पूजन के बाद स्थापित मूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा कर पूजन किया जाता है। इसी दिन से नवमी पर्यन्त भगवती की मूर्ति के साथ ही अन्य मूर्तियों की पूजा होती है। मूर्तियों में गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती, कार्तिकेय, शिव, पार्वती आदि की मूर्तियां भी रहती है। सबों का षोडशोपचार पूजन किया जाता है। साथ ही पूर्ववत् पाठादि कार्यक्रम चलते रहते हैं। सप्तमी तिथि से दशमी पर्यन्त महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के नाम से पूजन करना चाहिये।
अष्टमी को पूर्ववत् पूजन पाठ आदि होते हैं। मध्य रात्रि में अष्टमी तिथि रहते हुए निशापूजा का विधान है। यदि अष्टमी के मध्य रात्रि में अष्टमी तिथि नहीं हो तो सप्तमी की ही अष्टमी युक्त मध्य रात्रि में निशापूजा करनी चाहिए। निशा पूजा में विशेषकर योगिनियों की पूजा के साथ अंग पूजन, वाहन, अस्त्र, शस्त्रादि का पूजन किया जाता है।
पूजन के उपरान्त सब देवताओं के लिए बलि भी दी जाती है। बलि से अभिप्राय अपितु कुष्माण्ड, नारियल, नीबू एवं चावल, उड़द, दही का मिश्रित बलि सब देवताओं के लिए दी जाती है और सर्वमान्य हैं। और यदि संभव हो तो 101 घी का दीपक जलाकर भगवती को उत्सर्ग करें। इसी निशा पूजा के समय शिवाबलि का विधान है। यह एक आवश्यक विधान माना गया है। यदि संभव हो तो चावल (भात), सब्जी, दही आदि के साथ शिवा (सियाल) के मांद के सामने रख दें। यों तो विधान हैं कि सायंकाल ही जाकर उसके मांद के पास एक सुपारी या पुष्प रखकर निमंत्रण दे दें और अर्धरात्रि में उक्त सामान भोजन के लिए जगह लीप कर रखें। साथ ही पूजन भी कर दें। इस विधान से नवरात्र पूजन की सफलता व असफलता का भी अनुमान लगाया जाता है। प्रात: काल देखें कि यदि उसने सारा भोजन कर लिया है या नहीं, यदि उसने नहीं खाया तो पूजन की सफलता में लोग त्रुटि का अनुमान लगाते हैं।
नवमी तिथि को पूर्ववत् पूजन पाठ आदि कार्यक्रम होते हैं। नवमी को ही पाठादि कार्यक्रम पूर्ण कर लिया जाता है। सायं अथवा रात्रि में नवरात्र की पूर्णाहुति रूप हवन किया जाता है। कहीं कहीं नवमी के दिन में ही हवन करते हैं। इसमें कोई विरोध नहीं हैं। यहां तक भी देखा जाता है कि घर में अथवा मंदिरों में जहां मूर्ति की स्थापना नहीं होती अष्टमी की रात्रि में भी हवन करते हैं। यह भी विधान से बाहर की बात नहीं है किंतु संकल्पित पाठ पूर्ण होने पर ही हवन का विधान हैं।

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

भगवती के आगमन व गमन का फल

भगवती के आगमन व गमन का फल
नवरात्र के प्रथम दिन भगवती का आगमन और दशमी को गमन दिनों के अनुसार वर्ष का शुभ और अशुभ का ज्ञान करते हैं यथा-

भगवती का आगमन दिन


शशि सूर्य गजरुढा शनिभौमै तुरंगमे।
गुरौशुक्रेच दोलायां बुधे नौकाप्रकीर्तिता॥

रविवार और सोमवार को भगवती हाथी पर आती हैं, शनि और मंगल वार को घोड़े पर, बृहस्पति और शुक्रवार को डोला पर, बुधवार को नाव पर आती हैं।
 
गजेश जलदा देवी क्षत्रभंग तुरंगमे।
नौकायां कार्यसिद्धिस्यात् दोलायों मरणधु्रवम्॥

अर्थात् दुर्गा हाथी पर आने से अच्छी वर्षा होती है, घोड़े पर आने से राजाओं में युद्ध होता है। नाव पर आने से सब कार्यों में सिद्ध मिलती है और यदि डोले पर आती है तो उस वर्ष में अनेक कारणों से बहुत लोगों की मृत्यु होती है।


गमन (जाने)विचार:-

शशि सूर्य दिने यदि सा विजया
महिषागमने रुज शोककरा,
शनि भौमदिने यदि सा विजया
चरणायुध यानि करी विकला।
बुधशुक्र दिने यदि सा विजया
गजवाहन गा शुभ वृष्टिकरा,
सुरराजगुरौ यदि सा विजया
नरवाहन गा शुभ सौख्य करा॥
 
भगवती रविवार और सोमवार को महिषा (भैंसा)की सवारी से आती है जिससे देश में रोग और शोक की वृद्धि होती है। शनि और मंगल को पैदल आती हैं जिससे विकलता की वृद्धि होती है। बुध और शुक्र दिन में भगवती हाथी पर आती हैं। इससे वृष्टि वृद्धि होती है। बृहस्पति वार को भगवती मनुष्य की सवारी से आती हैं। जो सुख और सौख्य की वृद्धि करती है।

इस प्रकार भगवती का आना जाना शुभ और अशुभ फल सूचक हैं। इस फल का प्रभाव यजमान पर ही नहीं, पूरे राष्ट्र पर पड़ता हैं।

शनिवार, 10 अक्टूबर 2015

आरती उतारने का विधान

कई बार हम सब लोग जानकारी के अभाव में मन मर्जी के अनुसार आरती उतारते रहते हैं जबकि देवताओं के सम्मुख चौदह बार आरती उतारने का विधान होता है -चार बार चरणों में दो बार नाभि पर एक बार मुख पर सात बार पूरे शरीर पर इस प्रकार चौदह बार आरती की जाती है - जहां तक हो सके विषम संख्या अर्थात १,३,५,७ बत्तियॉं बनाकर ही आरती की जानी चाहिये.

किस मातृका शक्ति कि साधना करने से क्या प्राप्त होता है आइये अब इस पर एक निगाह डालते हैं :-

शैलपुत्री साधना- भौतिक एवं आध्यात्मिक इच्छा पूर्ति।
ब्रहा्रचारिणी साधना- विजय एवं आरोग्य की प्राप्ति।
चंद्रघण्टा साधना- पाप-ताप व बाधाओं से मुक्ति हेतु।
कूष्माण्डा साधना- आयु, यश, बल व ऐश्वर्य की प्राप्ति।
स्कंद साधना- कुंठा, कलह एवं द्वेष से मुक्ति।
कात्यायनी साधना- धर्म, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति तथा भय नाशक।
कालरात्रि साधना- व्यापार/रोजगार/सर्विस संबधी इच्छा पूर्ति।
महागौरी साधना- मनपसंद जीवन साथी व शीघ्र विवाह के लिए।
सिद्धिदात्री साधना- समस्त साधनाओं में सिद्ध व मनोरथ पूर्ति।

किसी भी देवता की प्रसन्नता के लिए हमें उस देवता का मंत्र व नाम सहित क्रम से पूजन व श्रृंगार क़रना चाहिये

किसी भी देवता की प्रसन्नता के लिए हमें उस देवता का मंत्र व नाम सहित क्रम से पूजन व श्रृंगार क़रना चाहिये।
षोडशोपचार पूजन :
१.आवाहन - ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे आगच्छय आगच्छय
२. आसन - ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे आसनं समर्पयामि
३. पाद्य ( चरण धोना ) - ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे पाद्यं निवेदयामि
४. अर्घ्य - ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे अर्घ्यं निवेदयामि
५, आचमन - ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे आचमनं समर्पयामि
६. स्नान - ॐ सह त्रिवेणी सलिलाधारम लोक संस्मृति मात्रेण वारिणा स्नापयाम्यहम् - ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे स्नानं निवेदयामि
७. वस्त्र - वस्त्र समर्पण में हमेशा दो वस्त्रों का समर्पण किया जाता है और उसका रंग लाल होना चाहिए - वस्त्र न होने कि स्थिति में मौली धागा ( जो प्रायः अनुष्ठान में रक्षा धागा के रूप में पुरोहितों द्वारा यजमान के हाथ में बंधा जाता है प्रयोग किया जा सकता है किन्तु उनमे से किसी भी धागे कि लम्बाई बारह अंगुल से कम नहीं होनी चाहिए )अ. ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे प्रथम वस्त्रं समर्पयामिब. ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे द्वितीय वस्त्रं समर्पयामि
८. यज्ञोपवीत ( यज्ञोपवीत एक धागा होता है जो गृहस्थ लोगों द्वारा धारण किया जाता है ) - ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे यज्ञोपवीतं समर्पयामि
९. चन्दन - ॐ मल्यांचल सम्भूतं नाना गंध समन्वितं - शीतलं बहुलामोदम गन्धं चन्दनं निवेदयामि
१०. अक्षत - ( अक्षत को हिंदी में चावल बोलते हैं अक्षत का पूजा एवं साधना में अभिप्राय होता है - आपके इष्ट के पसंदीदा रंग में रंगे हुए चावल जो टूटे-फूटे हुए न हों - माँ चामुंडा कि साधना में अक्षत लाल रंग में रंगे हुए प्रयोग किये जाते हैं - ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे आचमनं समर्पयामि
११. पुष्प - ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे पुष्पं समर्पयामि
१२. सिंदूर ( सिंदूर समर्पण करते समय एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि जब भी आप सिंदूर चढ़ाएंगे तो सिंदूर को माँ के मस्तक या ऊपर नहीं चढ़ाना है बल्कि उस सिन्दूर को उनके चरणों के पास समर्पित करना है ) - ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे सिन्दूरं समर्पयामि
१३. पान - ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे ताम्बूलं समर्पयामि
१४. सुपारी - ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे पुन्गीफलं समर्पयामि
१५. धूप - ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे गुग्गल संयुतं नाना गंध समन्वितं एवं भक्ष्य पदार्थ समन्वितं धूपं समर्पयामि
१६ . दीप - ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे घृत-कर्पूर-कपास एव स्वर्ण पात्र निर्मित दीपं समर्पयामि
१७ . नैवेद्य - ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डे नाना फल फूल एव खाद्य पदार्थ संयुक्त नैवेद्यम समर्पयामि-मध्यम पूजन खंड इन उपरोक्त
१७ चरणों को प्राथमिक पूजन में शामिल किया जाता है

भैरव कृपा

श्री मद बटुक भैरव शिवांश है तथा शाक्त उपासना में इनके बिना आगे बढना संभव ही नहीं है।शक्ति के किसी भी रूप की उपासना हो भैरव पूजन कर उनकी आज्ञा लेकर ही माता की उपासना होती है।भैरव रक्षक है साधक के जीवन में बाधाओं को दूर कर साधना मार्ग सरल सुलभ बनाते है।

भैरव कृपा
भैरव भक्त वत्सल है शीघ्र ही सहायता करते है,भरण,पोषण के साथ रक्षा भी करते है।ये शिव के अतिप्रिय तथा माता के लाडले है,इनके आज्ञा के बिना कोई शक्ति उपासना करता है तो उसके पुण्य का हरण कर लेते है कारण दिव्य साधना का अपना एक नियम है जो गुरू परम्परा से आगे बढता है।अगर कोई उदण्डता करे तो वो कृपा प्राप्त नहीं कर पाता है।
भैरव सिर्फ शिव माँ के आज्ञा पर चलते है वे शोधन,निवारण,रक्षण कर भक्त को लाकर भगवती के सन्मुख खड़ा कर देते है।इस जगत में शिव ने जितनी लीलाएं की है उस लीला के ही एक रूप है भैरव।भैरव या किसी भी शक्ति के तीन आचार जरूर होते है,जैसा भक्त वैसा ही आचार का पालन करना पड़ता है।ये भी अगर गुरू परम्परा से मिले वही करना चाहिए।आचार में सात्वीक ध्यान पूजन,राजसिक ध्यान पूजन,तथा तामसिक ध्यान पूजन करना चाहिए।भय का निवारण करते है भैरव।
भैरव स्वरुप
इस जगत में सबसे ज्यादा जीव पर करूणा शिव करते है और शक्ति तो सनातनी माँ है इन दोनो में भेद नहीं है कारण दोनों माता पिता है,इस लिए करूणा,दया जो इनका स्वभाव है वह भैरव जी में विद्यमान है।सृष्टि में आसुरी शक्तियां बहुत उपद्रव करती है,उसमें भी अगर कोई विशेष साधना और भक्ति मार्ग पर चलता हो तो ये कई एक साथ साधक को कष्ट पहुँचाते है,इसलिए अगर भैरव कृपा हो जाए तो सभी आसुरी शक्ति को भैरव बाबा मार भगाते है,इसलिये ये साक्षात रक्षक है। भूत बाधा हो या ग्रह बाधा,शत्रु भय हो रोग बाधा सभी को दूर कर भैरव कृपा प्रदान करते है।अष्ट भैरव प्रसिद्ध है परन्तु भैरव के कई अनेको रूप है सभी का महत्व है परन्तु बटुक सबसे प्यारे है।नित्य इनका ध्यान पूजन किया जाय तो सभी काम बन जाते है,जरूरत है हमें पूर्ण श्रद्धा से उन्हें पुकारने की,वे छोटे भोले शिव है ,दौड़ पड़ते है भक्त के रक्षा और कल्याण के लिए। जानें कौन-से भैरव हैं किस अद्भुत शक्ति के स्वामी?शिव जगदव्यापी यानी जगत में हर कण में बसते हैं। शास्त्र भी कहते हैं कि इस जगत की रचना सत्व, रज और तम गुणों से मिलकर हुई। जगतगुरु होने से शिव भी इन तीन गुणों के नियंत्रण माने जाते हैं। इसलिए शिव को आनंद स्वरूप में शंभू, विकराल स्वरूप में उग्र तो सत्व स्वरूप में सात्विक भी पुकारा जाता है।
शिव के यह त्रिगुण स्वरूप भैरव अवतार में भी प्रकट होता है। हिन्दू मान्यताओं के मुताबिक शिव ने प्रदोषकाल में ही भैरव रूप में काल व कलह रूपी अंधकार से जगत की रक्षा के लिए प्रकट हुए। इसलिए शास्त्रों और धार्मिक परंपराओं में अष्ट भैरव से लेकर 64 भैरव स्वरूप पूजनीय और फलदायी बताए गए हैं।
इसी कड़ी में जानते हैं शिव की रज, तम व सत्व गुणी शक्तियों के आधार पर भैरव स्वरूप कौन है व उनकी साधना किन इच्छाओं को पूरा करती है -
बटुक भैरव - यह भैरव का सात्विक राजस् व् तम व बाल स्वरूप है। जिनकी उपासना सभी सुख, आयु, निरोगी जीवन, पद, प्रतिष्ठा व मुक्ति प्रदान करने वाला माना गया है।
काल भैरव - यह भैरव का राजस् व् तामस किन्तु कल्याणकारी स्वरूप माना गया है। इनको काल का नियंत्रक भी माना गया है। इनकी उपासना काल भय, संकट, दु:ख व शत्रुओं से मुक्ति देने वाली मानी गई है।
आनंद भैरव - भैरव का यह राजस व् तामस स्वरूप माना गया है। दश महाविद्या के अंतर्गत हर शक्ति के साथ भैरव उपासना ऐसी ही अर्थ, धर्म, काम की सिद्धियां देने वाली मानी गई है। तंत्र शास्त्रों में भी ऐसी भैरव साधना के साथ भैरवी उपासना का भी महत्व बताया गया है।चाहें जल्द व ज्यादा धन लाभ..तो जानें भैरव पूजा का सही वक्त व तरीकाशिव का एक नाम भगवान भी है। शास्त्रों में भगवान का अर्थ सर्व शक्तिमान व ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान व वैराग्य सहित छ: गुणों से संपन्नता भी बताया गया है। शिव व उनके सभी अवतारों में यह गुण प्रकट होते हैं व उनकी भक्ति भी सांसारिक जीवन में ऐसी शक्तियों की कामना पूरी करती है।
हिन्दू मान्यताओं के मुताबिक मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की अष्टमी को शिव ने भैरव अवतार लिया। जिसका लक्ष्य दुर्गुणी व दुष्ट शक्तियों का अंत ही था, जो सुख, ऐश्वर्य व जीवन में बाधक होती है। शिव का यह कालरक्षक भीषण स्वरूप कालभैरव व काशी के कोतवाल के रूप में पूजनीय है।

भय को नष्ट करने वाले देवता का नाम है भैरव

भय को नष्ट करने वाले देवता का नाम है भैरव

भैरव के होते है आठ प्रमुख रूप, किसी भी रूप की साधना बना सकती है महाबलशाली, भैरव की सौम्य रूप में करनी चाहिए साधना पूजा, कुत्ता भैरव जी का वाहन है, कुत्तों को भोजन अवश्य खिलाना चाहिए, पूरे परिवार की रक्षा करते हैं भैरव देवता, काले वस्त्र और नारियल चढाने से होते हैं प्रसन्न, भैरव के भक्त को तीनो लोकों में कोई नहीं हरा पता, जीवन के हर क्षेत्र में सफलता के लिए भैरव को चौमुखा दीपक जला कर चढ़ाएं, भैरव की मूर्ती पर तिल चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है, भैरव के मन्त्रों से होता है सारे दुखों का नाश..

भय नाशक मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय भयं हन

उरद की दाल भैरव जी को अर्पित करें
पुष्प,अक्षत,धूप दीप से पूजन करें
रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें
दक्षिण दिशा की और मुख रखें

शत्रु नाशक मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय शत्रु नाशं कुरु
नारियल काले वस्त्र में लपेट कर भैरव जी को अर्पित करें
गुगुल की धूनी जलाएं
रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें
पश्चिम कि और मुख रखें

जादू टोना नाशक मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय तंत्र बाधाम नाशय नाशय
आटे के तीन दिये जलाएं
कपूर से आरती करें
रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें
दक्षिण की और मुख रखे

प्रतियोगिता इंटरवियु में सफलता का मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय साफल्यं देहि देहि स्वाहा:
बेसन का हलवा प्रसाद रूप में बना कर चढ़ाएं
एक अखंड दीपक जला कर रखें
रुद्राक्ष की मलका से 8 माला का मंत्र जप करें
पूर्व की और मुख रखें

बच्चों की रक्षा का मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय कुमारं रक्ष रक्ष
मीठी रोटी का भोग लगायें
दो नारियल भैरव जी को अर्पित करें
रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें
पश्चिम की ओर मुख रखें

लम्बी आयु का मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय रुरु स्वरूपाय स्वाहा:
काले कपडे का दान करें
गरीबों को भोजन खिलाये

प्रयोग विश्वास पर आधारित.. राशि अनुसार उपाय

प्रयोग विश्वास पर आधारित..
धन प्राप्ति के राशि अनुसार उपाय ..
मेष राशि :-
1- रात में लाल चंदन और केसर घिसकर उससे रंगा हुआ सफेद कपड़ा यदि आप अपने गल्ले अथवा तिजोरी में बिछाएंगे तो उससे आपकी समृद्धि में हमेशा वृद्धि होगी तथा आकस्मिक धनहानि का अवसर भी नहीं आएगा।
2- शाम के समय घर के मुख्य द्वार पर तेल का दीपक जलाएं तथा उस दीपक में दो काली गुंजा डाल दें तो वर्ष भर आपको आर्थिक रूप से परेशानी नहीं होगी। आपका रुका हुआ धन भी जल्दी ही मिल जाएगा।
3- स्फटिक या कमलगट्टे की माला से इस मंत्र का जप करें- ॐ ऐं क्लीं सौ:
वृषभ राशि :-
1- यदि बहुत पैसा कमाने के बावजूद भी आप उसे सेविंग नहीं कर पा रहे हैं तो लक्ष्मी पूजन के साथ-साथ कमल के फूल का भी पूजन करें तथा बाद में इस फूल को लाल कपड़े में बांधकर अपने धन स्थान यानी तिजोरी या लॉकर में रखें।
2- रात गाय के घी के दो दीपक जलाकर उन्हें किसी एकांत स्थान अपनी मनोकामना बताते हुए पर रख आएं। शीघ्र ही आपकी हर मनोकामना पूरी हो जाएगी।
3- स्फटिक या कमलगट्टे की माला से इस मंत्र का जप करें- ॐ ऐं क्लीं श्रीं
मिथुन राशि :-
1- यदि आप धन की कमी से जूझ रहे हैं तो लक्ष्मी-गणेश पूजन करते समय दक्षिणावर्ती शंख की पूजा करके उसे अपने धन स्थान पर रखें।
2- यदि आप कर्ज से परेशान हैं तो लक्ष्मी पूजन के बाद गणेशजी की प्रतिमा को हल्दी की माला पहनाएं। इससे आपकी परेशान समाप्त हो जाएगी।
3- स्फटिक या कमलगट्टे की माला से इस मंत्र का जप करें- ॐ क्लीं ऐं स:
कर्क राशि :-
1- यदि आपको धन लाभ की अभिलाषा है तो शाम के समय पीपल के वृक्ष के नीचे तेल का पंचमुखी दीपक जलाएं।
2- यदि आप त्रिकोण आकृति का झंड़ा विष्णु भगवान के किसी मंदिर में ऊंचाई वाले स्थान पर इस प्रकार लगाएं कि वह लहराता रहे तो तक आपका भाग्य चमक उठेगा।
3- कर्क राशि के लोग स्फटिक या कमलगट्टे की माला से इस मंत्र का जप करें- ॐ क्ली ऐं श्रीं
सिंह राशि :-
1- रात घर के मुख्य दरवाजे पर गाय के घी का दीपक जला कर रखें। यदि वह दीपक सुबह तक जलता रहे तो समझें कि आपकी आर्थिक स्थिति में सुधार आएगा साथ ही मान-सम्मान भी बढ़ेगा।
2- यदि शत्रु आपको परेशान कर रहे हैं तो दीपावली की शाम को पीपल के पत्ते पर अनार की कलम से गोरोचन के द्वारा शत्रु का नाम लिखकर भूमि में दबा दें।
3- स्फटिक या कमलगट्टे की माला से इस मंत्र का जप करें- ॐ ह्रीं श्रीं सौं:
कन्या राशि :-
1- यदि आपको धन संबंधी कोई समस्या है तो आप लाल रुमाल में नारियल बांधकर अपने गल्ले अथवा तिजोरी में रखें। धन लाभ होने लगेगा। इसके दो कमलगट्टे की माला माता लक्ष्मी के मंदिर में दान अर्पित करें।
2- यदि आपको नौकरी संबंधी कोई समस्या है तो आप तक रोज मीठे चावल कौओं को खिलाएं। इससे आपकी समस्या का निदान हो जाएगा।
3- स्फटिक या कमलगट्टे की माला से इस मंत्र का जप करें- ॐ श्रीं ऐं सौं
तुला राशि :-
1- यदि आपको व्यवसाय में घाटा हो रहा है तो आप बड़ के पेड़ के पत्ते पर सिंदूर व घी से ॐ श्रीं श्रियै नम: मंत्र लिखें और इसे बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें।
2- लक्ष्मी की विशेष कृपा पाने के लिए तुला राशि के लोग सुबह स्नान आदि नित्य कर्म करने के बाद किसी लक्ष्मी मंदिर में जाकर 11 नारियल अर्पित करें।
3- स्फटिक या कमलगट्टे की माला से इस मंत्र का जप करें- ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं
वृश्चिक राशि :-
1- इस राशि के लोगों को यदि धन की इच्छा है तो वे अपने घर के बगीचे या बरामदे में केले के दो पेड़ लगाएं तथा इनकी देखभाल करें। परंतु इनके फल का सेवन न करें।
2- यदि परिवार में अशांति है तो नागकेसर का फूल लाकर घर में कहीं छिपा दें। जहां उसे कोई देख न सके।
3- स्फटिक या कमलगट्टे की माला से इस मंत्र का जप करें- ॐ ऐं क्लीं सौ:
धनु राशि :
1- इस राशि के लोग धन प्राप्ति के लिए पान के पत्ते पर रोली से श्रीं लिख कर अपने पूजा स्थान पर रखे तथा रोज इसकी पूजा करें।
2- यदि तुला राशि के लोग किसी बीमारी से परेशान हैं तो चंद्रमा को अध्र्य दें और बीमारी के निवारण के लिए प्रार्थना करें। अमावस्या होने से चांद दिखाई नहीं देगा तो भी अध्र्य दें।
3- स्फटिक या कमलगट्टे की माला से इस मंत्र का जप करें- ॐ ह्रीं क्लीं सौ:
मकर राशि :-
1- काफी समय से यदि धन रुका हुआ है तो आक की रुई का दीपक घर के ईशान कोण में जलाएं।
2- यदि विवाह में बाधा आ रही है तो भगवान विष्णु की पूजा करें और उन्हें पीला वस्त्र, पीली मिठाई अर्पित करें।
3-स्फटिक या कमलगट्टे की माला से इस मंत्र का जप करें- ॐ ऐं क्लीं सौ:
कुंभ राशि :-
1- जीवन साथी के साथ नहीं बनती है तो खीर बनाएं इसका भोग लक्ष्मी को लगाएं और फिर स्वयं भी खाएं। इससे दांपत्य जीवन में मधुरता आएगी।
2- धन प्राप्ति के लिए नारियल के कठोर आवरण में घी डालकर लक्ष्मीजी के समक्ष दीपक जलाएं। यह दीपक रात भर जलने दें
3- स्फटिक या कमलगट्टे की माला से इस मंत्र का जप करें- ॐ ह्रीं ऐं क्लीं श्रीं
मीन राशि :-
1- यदि आपको शत्रु पक्ष से परेशानी हैं तो कर्पूर के काजल से शत्रु का नाम लिखकर अपने पैर से मिटा दें।
2- धन लाभ के लिए किसी लक्ष्मी मंदिर में जाकर कमल के फूल, नारियल अर्पित करें तथा सफेद मिठाई का भोग लगाएं।
3- कमलगट्टे की माला से इस मंत्र का जप करें- ॐ ह्रीं क्लीं सौ:.
साभार..प्राप्त.

बन जाएगा हर बिगड़ा काम इस मंत्र से

बन जाएगा हर बिगड़ा काम इस मंत्र से..
ऐसा कई बार होता है कि हमारा कोई काम बनते-बनते बिगड़ जाता है। ऐसे में हमें काफी निराशा होती है। कई बार ऐसा भी होता है कि हमारे कार्य की सफलता उन लोगों पर टिकी होती है जिनके हमारी बिल्कुल नहीं बनती। ऐसे समय अगर नीच लिखे मंत्र का विधि-विधान से जप किया जाए तो हर बिगड़ी हुई बात बन जाती है और कार्य सिद्धि हो जाता है।
मंत्र–
ओम् श्रीं श्रीं ओम् ओम् श्रीं श्रीं हुं फट् स्वाहा।
जप विधि.
सुबह जल्दी उठकर साफ वस्त्र पहनकर सबसे पहले भगवान शिव की पूजा करें। इसके बाद एकांत में कुश के आसन पर बैठकर रुद्राक्ष की माला से इस मंत्र का जप करें। कुछ ही दिनों में इस मंत्र का असर दिखने लगेगा और आपके कार्य बन सकते है ऐसी सम्भावना बहुत ज्यादा है ।l

अशोक के पेड़ से करे शोक निवारण

मंत्र---- सुनहु बिनय मम् बिटप असोका।
सत्य नाम करु हरू मम सोका।।
अशोक के पेड़ से करे
शोक निवारण
पीपल और बरगद के विषय में तो आप कई बार जान और पढ़ चुके होंगे, आज हम आपको अशोक का पेड़ इंसान के जीवन की परेशानियों को किस तरह हल कर सकता है या किस तरह उनके काम आ सकते है।
१. कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में धन की कमी जैसे हालातों का सामना नहीं करना चाहता। लेकिन अगर किसी कारणवश ऐसी स्थिति आ गई है तो अशोक के पेड़ की जड़ को आमंत्रण देकर या फिर दुकान लेकर आएं। इस जड़ को किसी पवित्र स्थान पर रखने से धन से जुड़ी समस्या का समाप्त हो जाएगी।
२. पति-पत्नी के बीच तनाव या फिर पारिवारिक कलह को शांत करने के लिए अशोक के 7 पत्तों को मंदिर में रख दें। मुरझाने के बाद इन पत्तों को हटाकर दूसरे नए पत्ते ले आएं और पुराने पत्तों को पीपल के पेड़ की जड़ में डाल दें। यह उपाय करने से पति-पत्नी के बीच प्रेम बढ़ता है।
३. घर में कोई उत्सव या त्यौहार हो, या फिर कोई शुभ कार्य होना हो तो अशोक के पत्तों की वंदनवार बनाकर दहलीज के बाहर कुछ ऐसे लगाएं कि हर अंदर आने वाले व्यक्ति के सिर पर वे स्पर्श हों। इसके प्रभाव से घर में सुख-शांति बनी रहती है।
४. तांबे की ताबीज में अशोक के बीज धारण करने से लगभग हर कार्य में सफलता प्राप्त होती है। ना तो व्यक्ति को धन से जुड़ी कोई दिक्कत आती है और ना ही उसकी गरिमा कम होती है।
५. दुर्गा के भक्तों और उनकी कृपा पाने की लालसा रखने वाले व्यक्तियों को प्रतिदिन अशोक के पेड़ की जड़ में पानी चढ़ाना चाहिए। जल चढ़ाते समय देवी का जाप या उनका ध्यान अवश्य किया जाना चाहिए। इस उपाय को करने से बिगड़ती किसमत भी बन जाती है।
५. अगर कहीं से भी कोई समस्या हल नहीं हो रही हो तो अशोक के पेड़ के नीचे जाकर अपनी मनोकामना बोले और निम्न मंत्र का जाप करें, इसके बाद १ पत्ता तोड़ कर अपनी जेब में रख लें। ४१ दिन लगातार करने से सारी समस्याएं दुर होती है।
मंत्र---- सुनहु बिनय मम् बिटप असोका।
सत्य नाम करु हरू मम सोका।।

।।श्री कालभैरव।।

।।श्री कालभैरव।।
भगवान भैरव की महिमा अनेक शास्त्रों में मिलती है। भैरव जहाँ शिव के गण के रूप में जाने जाते हैं, वहीं वे दुर्गा के अनुचारी माने गए हैं। भैरव की सवारी कुत्ता है। चमेली फूल प्रिय होने के कारण उपासना में इसका विशेष महत्व है। साथ ही भैरव रात्रि के देवता माने जाते हैं और इनकी आराधना का खास समय भी मध्य रात्रि में 12 से 3 बजे का माना जाता है।
शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव के दो स्वरूप बताए गए हैं। एक स्वरूप में महादेव अपने भक्तों को अभय देने वाले विश्वेश्वरस्वरूप हैं वहीं दूसरे स्वरूप में भगवान शिव दुष्टों को दंड देने वाले कालभैरव स्वरूप में विद्यमान हैं। शिवजी का विश्वेश्वरस्वरूप अत्यंत ही सौम्य और शांत हैं यह भक्तों को सुख, शांति और समृद्धि प्रदान करता है।वहीं भैरवस्वरूप रौद्र रूप वाले हैं, इनका रूप भयानक और विकराल होता है। इनकी पूजा करने वाले भक्तों को किसी भी प्रकार डर कभी परेशान नहीं करता। कलयुग में काल के भय से बचने के लिए कालभैरव की आराधना सबसे अच्छा उपाय है। कालभैरव को शिवजी का ही रूप माना गया है। कालभैरव की पूजा करने वाले व्यक्ति को किसी भी प्रकार का डर नहीं सताता है।
भैरव शब्द का अर्थ ही होता है- भीषण, भयानक, डरावना। भैरव को शिव के द्वारा उत्पन्न हुआ या शिवपुत्र माना जाता है। भगवान शिव के आठ विभिन्न रूपों में से भैरव एक है। वह भगवान शिव का प्रमुख योद्धा है। भैरव के आठ स्वरूप पाए जाते हैं। जिनमे प्रमुखत: काला और गोरा भैरव अतिप्रसिद्ध हैं।
रुद्रमाला से सुशोभित, जिनकी आंखों में से आग की लपटें निकलती हैं, जिनके हाथ में कपाल है, जो अति उग्र हैं, ऐसे कालभैरव को मैं वंदन करता हूं।- भगवान कालभैरव की इस वंदनात्मक प्रार्थना से ही उनके भयंकर एवं उग्ररूप का परिचय हमें मिलता है। कालभैरव की उत्पत्ति की कथा शिवपुराण में इस तरह प्राप्त होती है-
एक बार मेरु पर्वत के सुदूर शिखर पर ब्रह्मा विराजमान थे, तब सब देव और ऋषिगण उत्तम तत्व के बारे में जानने के लिए उनके पास गए। तब ब्रह्मा ने कहा वे स्वयं ही उत्तम तत्व हैं यानि कि सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च हैं। किंतु भगवान विष्णु इस बात से सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा कि वे ही समस्त सृष्टि से सर्जक और परमपुरुष परमात्मा हैं। तभी उनके बीच एक महान ज्योति प्रकट हुई। उस ज्योति के मंडल में उन्होंने पुरुष का एक आकार देखा। तब तीन नेत्र वाले महान पुरुष शिवस्वरूप में दिखाई दिए। उनके हाथ में त्रिशूल था, सर्प और चंद्र के अलंकार धारण किए हुए थे। तब ब्रह्मा ने अहंकार से कहा कि आप पहले मेरे ही ललाट से रुद्ररूप में प्रकट हुए हैं। उनके इस अनावश्यक अहंकार को देखकर भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए और उस क्रोध से भैरव नामक पुरुष को उत्पन्न किया। यह भैरव बड़े तेज से प्रज्जवलित हो उठा और साक्षात काल की भांति दिखने लगा।
इसलिए वह कालराज से प्रसिद्ध हुआ और भयंकर होने से भैरव कहलाने लगा। काल भी उनसे भयभीत होगा इसलिए वह कालभैरव कहलाने लगे। दुष्ट आत्माओं का नाश करने वाला यह आमर्दक भी कहा गया। काशी नगरी का अधिपति भी उन्हें बनाया गया। उनके इस भयंकर रूप को देखकर बह्मा और विष्णु शिव की आराधना करने लगे और गर्वरहित हो गए।
लौकिक और अलौकिक शक्तियों के द्वारा मानव जीवन में सफलता पायी जा सकती है, लेकिन शक्तियां जहां स्थिर रहती है, वहीं अलौकिक शक्तियां हर पल, हर क्षण मनुष्य के साथ-साथ रहती है। अलौकिक शक्तियों को प्राप्त करने का श्रोत मात्र देवी देवताओं की साधना, उपासना शीघ्र फलदायी मानी गई है। कालभैरव भगवान शिव के पांचवें स्वरूप है तो विष्णु के अंश भी है। इनकी उपासना मात्र से ही सभी प्रकार के दैहिक, दैविक, मानसिक परेशानियों से शीघ्र मुक्ति मिलती है। कोई भी मानव इनकी पुजा, आराधना, उपासना से लाभ उठा सकता है। आज इस विषमता भरे युग में मानव को कदम-कदम पर बाधाओं, विपत्तियों और शत्रुओं का सामना करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में मंत्र साधना ही इन सब समस्याओं पर विजय दिलाता है। शत्रुओं का सामना करने, सुख-शान्ति समृद्धि में यह साधना अति उत्तम है। शिव पुराण में वर्णित है--
भैरव: पूर्ण रूपोहि शंकर परात्मन: भूगेस्तेवैन जानंति मोहिता शिव भामया:।
देवताओं ने श्री कालभैरव की उपासना करते हुए बताया है कि काल की तरह रौद्र होने के कारण यह कालराज है। मृत्यु भी इनसे भयभीत रहती है। यह कालभैरव है इसलिए दुष्टों और शत्रुओं का नाश करने में सक्षम है। तंत्र शास्त्र के प्रव‌र्त्तक आचार्यो ने प्रत्येक उपासना कर्म की सिद्धि के लिए किए जाने वाले जप पाठ आदि कर्र्मो के आरंभ में भगवान भैरवनाथ की आज्ञा प्राप्त करने का निर्देश किया है।
अतिक्रूर महाकाय, कल्पानत-दहनोपय,भैरवाय नमस्तुभ्यमेनुझां दातुमहसि।
इससे स्पष्ट है कि सभी पुजा पाठों की आरंभिक प्रक्रिया में भैरवनाथ का स्मरण, पूजन, मंत्रजाप आवश्यक होते है। श्री काल भैरव का नाम सुनते ही बहुत से लोग भयभीत हो जाते है और कहते है कि ये उग्र देवता है। अत: इनकी साधना वाम मार्ग से होती है इसलिए यह हमारे लिए उपयोगी नहीं है। लेकिन यह मात्र उनका भ्रम है। प्रत्येक देवता सात्विक, राजस और तामस स्वरूप वाले होते है, किंतु ये स्वरूप उनके द्वारा भक्त के कार्र्यो की सिद्धि के लिए ही धरण किये जाते है। श्री कालभैरव इतने कृपालु एवं भक्तवत्सल है कि सामान्य स्मरण एवं स्तुति से ही प्रसन्न होकर भक्त के संकटों का तत्काल निवारण कर देते है।
तंत्राचार्यों का मानना है कि वेदों में जिस परम पुरुष का चित्रण रुद्र में हुआ, वह तंत्र शास्त्र के ग्रंथों में उस स्वरूप का वर्णन 'भैरव' के नाम से किया गया, जिसके भय से सूर्य एवं अग्नि तपते हैं। इंद्र-वायु और मृत्यु देवता अपने-अपने कामों में तत्पर हैं, वे परम शक्तिमान 'भैरव' ही हैं। भगवान शंकर के अवतारों में भैरव का अपना एक विशिष्ट महत्व है।
तांत्रिक पद्धति में भैरव शब्द की निरूक्ति उनका विराट रूप प्रतिबिम्बित करती हैं। वामकेश्वर तंत्र की योगिनीहदयदीपिका टीका में अमृतानंद नाथ कहते हैं- 'विश्वस्य भरणाद् रमणाद् वमनात्‌ सृष्टि-स्थिति-संहारकारी परशिवो भैरवः।'
भ- से विश्व का भरण, र- से रमश, व- से वमन अर्थात सृष्टि को उत्पत्ति पालन और संहार करने वाले शिव ही भैरव हैं। तंत्रालोक की विवेक-टीका में भगवान शंकर के भैरव रूप को ही सृष्टि का संचालक बताया गया है।
श्री तंत्वनिधि नाम तंत्र-मंत्र में भैरव शब्द के तीन अक्षरों के ध्यान के उनके त्रिगुणात्मक स्वरूप को सुस्पष्ट परिचय मिलता है, क्योंकि ये तीनों शक्तियां उनके समाविष्ट हैं
'भ' अक्षरवाली जो भैरव मूर्ति है वह श्यामला है, भद्रासन पर विराजमान है तथा उदय कालिक सूर्य के समान सिंदूरवर्णी उसकी कांति है। वह एक मुखी विग्रह अपने चारों हाथों में धनुष, बाण वर तथा अभय धारण किए हुए हैं।
'र' अक्षरवाली भैरव मूर्ति श्याम वर्ण हैं। उनके वस्त्र लाल हैं। सिंह पर आरूढ़ वह पंचमुखी देवी अपने आठ हाथों में खड्ग, खेट (मूसल), अंकुश, गदा, पाश, शूल, वर तथा अभय धारण किए हुए हैं।
'व' अक्षरवाली भैरवी शक्ति के आभूषण और नरवरफाटक के सामान श्वेत हैं। वह देवी समस्त लोकों का एकमात्र आश्रय है। विकसित कमल पुष्प उनका आसन है। वे चारों हाथों में क्रमशः दो कमल, वर एवं अभय धारण करती हैं।
स्कंदपुराण के काशी- खंड के 31वें अध्याय में उनके प्राकट्य की कथा है। गर्व से उन्मत ब्रह्माजी के पांचवें मस्तक को अपने बाएं हाथ के नखाग्र से काट देने पर जब भैरव ब्रह्म हत्या के भागी हो गए, तबसे भगवान शिव की प्रिय पुरी 'काशी' में आकर दोष मुक्त हुए।
ब्रह्मवैवत पुराण के प्रकृति खंडान्तर्गत दुर्गोपाख्यान में आठ पूज्य निर्दिष्ट हैं- महाभैरव, संहार भैरव, असितांग भैरव, रूरू भैरव, काल भैरव, क्रोध भैरव, ताम्रचूड भैरव, चंद्रचूड भैरव। लेकिन इसी पुराण के गणपति- खंड के 41वें अध्याय में अष्टभैरव के नामों में सात और आठ क्रमांक पर क्रमशः कपालभैरव तथा रूद्र भैरव का नामोल्लेख मिलता है। तंत्रसार में वर्णित आठ भैरव असितांग, रूरू, चंड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण संहार नाम वाले हैं।
भैरव कलियुग के जागृत देवता हैं। शिव पुराण में भैरव को महादेव शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। इनकी आराधना में कठोर नियमों का विधान भी नहीं है। ऐसे परम कृपालु एवं शीघ्र फल देने वाले भैरवनाथ की शरण में जाने पर जीव का निश्चय ही उद्धार हो जाता है।
भैरव के नाम जप मात्र से मनुष्य को कई रोगों से मुक्ति मिलती है। वे संतान को लंबी उम्र प्रदान करते है। अगर आप भूत-प्रेत बाधा, तांत्रिक क्रियाओं से परेशान है, तो आप शनिवार या मंगलवार कभी भी अपने घर में भैरव पाठ का वाचन कराने से समस्त कष्टों और परेशानियों से मुक्त हो सकते हैं।
जन्मकुंडली में अगर आप मंगल ग्रह के दोषों से परेशान हैं तो भैरव की पूजा करके पत्रिका के दोषों का निवारण आसानी से कर सकते है। राहु केतु के उपायों के लिए भी इनका पूजन करना अच्छा माना जाता है। भैरव की पूजा में काली उड़द और उड़द से बने मिष्‍ठान्न इमरती, दही बड़े, दूध और मेवा का भोग लगानालाभकारी है इससे भैरव प्रसन्न होते है।
भैरव की पूजा-अर्चना करने से परिवार में सुख-शांति, समृद्धि के साथ-साथ स्वास्थ्य की रक्षा भी होती है। तंत्र के ये जाने-माने महान देवता काशी के कोतवाल माने जाते हैं। भैरव तंत्रोक्त, बटुक भैरव कवच, काल भैरव स्तोत्र, बटुक भैरव ब्रह्म कवच आदि का नियमित पाठ करने से अपनी अनेक समस्याओं का निदान कर सकते हैं। भैरव कवच से असामायिक मृत्यु से बचा जा सकता है।
खास तौर पर कालभैरव अष्टमी पर भैरव के दर्शन करने से आपको अशुभ कर्मों से मुक्ति मिल सकती है। भारत भर में कई परिवारों में कुलदेवता के रूप में भैरव की पूजा करने का विधान हैं। वैसे तो आम आदमी, शनि, कालिका माँ और काल भैरव का नाम सुनते ही घबराने लगते हैं, ‍लेकिन सच्चे दिल से की गई इनकी आराधना आपके जीवन के रूप-रंग को बदल सकती है। ये सभी देवता आपको घबराने के लिए नहीं बल्कि आपको सुखी जीवन देने के लिए तत्पर रहते है बशर्ते आप सही रास्ते पर चलते रहे।
भैरव अपने भक्तों की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण करके उनके कर्म सिद्धि को अपने आशीर्वाद से नवाजते है। भैरव उपासना जल्दी फल देने के साथ-साथ क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त खत्म कर देती है। शनि या राहु से पीडि़त व्यक्ति अगर शनिवार और रविवार को काल भैरव के मंदिर में जाकर उनका दर्शन करें। तो उसके सारे कार्य सकुशल संपन्न हो जाते है।
शिव के अवतार श्री कालभैरव अपने भक्तों पर तुरंत प्रसन्न हो जाते हैं। साथ ही इनकी आराधना करने पर हमारे कई बुरे गुण स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं। आदर्श और उच्च जीवन व्यतीत करने के लिए कालभैरव से भी शिक्षा ली जा सकती हैं। जीवन प्रबंधन से जुड़े कई संदेश श्री भैरव देते हैं-
भैरव को भगवान शंकर का पूर्ण रूप माना गया है। भगवान शंकर के इस अवतार से हमें अवगुणों को त्यागना सीखना चाहिए। भैरव के बारे में प्रचलित है कि ये अति क्रोधी, तामसिक गुणों वाले तथा मदिरा के सेवन करने वाले हैं। इस अवतार का मूल उद्देश्य है कि मनुष्य अपने सारे अवगुण जैसे- मदिरापान, तामसिक भोजन, क्रोधी स्वभाव आदि भैरव को समर्पित कर पूर्णत: धर्ममय आचरण करें। भैरव अवतार हमें यह भी शिक्षा मिलती है कि हर कार्य सोच-विचार कर करना ही ठीक रहता है। बिना विचारे कार्य करने से पद व प्रतिष्ठा धूमिल होती है।
श्रीभैरवनाथसाक्षात् रुद्र हैं। शास्त्रों के सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि वेदों में जिस परमपुरुष का नाम रुद्र है, तंत्रशास्त्रमें उसी का भैरव के नाम से वर्णन हुआ है। तन्त्रालोक की विवेकटीका में भैरव शब्द की यह व्युत्पत्ति दी गई है- बिभíत धारयतिपुष्णातिरचयतीतिभैरव: अर्थात् जो देव सृष्टि की रचना, पालन और संहार में समर्थ है, वह भैरव है। शिवपुराणमें भैरव को भगवान शंकर का पूर्णरूप बतलाया गया है। तत्वज्ञानी भगवान शंकर और भैरवनाथमें कोई अंतर नहीं मानते हैं। वे इन दोनों में अभेद दृष्टि रखते हैं।
वामकेश्वर तन्त्र के एक भाग की टीका- योगिनीहृदयदीपिका में अमृतानन्दनाथका कथन है- विश्वस्य भरणाद्रमणाद्वमनात्सृष्टि-स्थिति-संहारकारी परशिवोभैरव:। भैरव शब्द के तीन अक्षरों भ-र-वमें ब्रह्मा-विष्णु-महेश की उत्पत्ति-पालन-संहार की शक्तियां सन्निहित हैं। नित्यषोडशिकार्णव की सेतुबन्ध नामक टीका में भी भैरव को सर्वशक्तिमान बताया गया है-भैरव: सर्वशक्तिभरित:।शैवोंमें कापालिकसम्प्रदाय के प्रधान देवता भैरव ही हैं। ये भैरव वस्तुत:रुद्र-स्वरूप सदाशिवही हैं। शिव-शक्ति एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की उपासना कभी फलीभूत नहीं होती। यतिदण्डैश्वर्य-विधान में शक्ति के साधक के लिए शिव-स्वरूप भैरवजीकी आराधना अनिवार्य बताई गई है। रुद्रयामल में भी यही निर्देश है कि तन्त्रशास्त्रोक्तदस महाविद्याओंकी साधना में सिद्धि प्राप्त करने के लिए उनके भैरव की भी अर्चना करें। उदाहरण के लिए कालिका महाविद्याके साधक को भगवती काली के साथ कालभैरवकी भी उपासना करनी होगी। इसी तरह प्रत्येक महाविद्या-शक्तिके साथ उनके शिव (भैरव) की आराधना का विधान है। दुर्गासप्तशतीके प्रत्येक अध्याय अथवा चरित्र में भैरव-नामावली का सम्पुट लगाकर पाठ करने से आश्चर्यजनक परिणाम सामने आते हैं, इससे असम्भव भी सम्भव हो जाता है। श्रीयंत्रके नौ आवरणों की पूजा में दीक्षाप्राप्तसाधक देवियों के साथ भैरव की भी अर्चना करते हैं।
अष्टसिद्धि के प्रदाता भैरवनाथके मुख्यत:आठ स्वरूप ही सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं पूजित हैं। इनमें भी कालभैरव तथा बटुकभैरव की उपासना सबसे ज्यादा प्रचलित है। काशी के कोतवाल कालभैरवकी कृपा के बिना बाबा विश्वनाथ का सामीप्य नहीं मिलता है। वाराणसी में निíवघ्न जप-तप, निवास, अनुष्ठान की सफलता के लिए कालभैरवका दर्शन-पूजन अवश्य करें। इनकी हाजिरी दिए बिना काशी की तीर्थयात्रा पूर्ण नहीं होती। इसी तरह उज्जयिनीके कालभैरवकी बडी महिमा है। महाकालेश्वर की नगरी अवंतिकापुरी(उज्जैन) में स्थित कालभैरवके प्रत्यक्ष मद्य-पान को देखकर सभी चकित हो उठते हैं।
धर्मग्रन्थों के अनुशीलन से यह तथ्य विदित होता है कि भगवान शंकर के कालभैरव-स्वरूपका आविर्भाव मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की प्रदोषकाल-व्यापिनीअष्टमी में हुआ था, अत:यह तिथि कालभैरवाष्टमी के नाम से विख्यात हो गई। इस दिन भैरव-मंदिरों में विशेष पूजन और श्रृंगार बडे धूमधाम से होता है। भैरवनाथके भक्त कालभैरवाष्टमी के व्रत को अत्यन्त श्रद्धा के साथ रखते हैं। मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी से प्रारम्भ करके प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की प्रदोष-व्यापिनी अष्टमी के दिन कालभैरवकी पूजा, दर्शन तथा व्रत करने से भीषण संकट दूर होते हैं और कार्य-सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। पंचांगों में इस अष्टमी को कालाष्टमी के नाम से प्रकाशित किया जाता है।
ज्योतिषशास्त्र की बहुचíचत पुस्तक लाल किताब के अनुसार शनि के प्रकोप का शमन भैरव की आराधना से होता है। इस वर्ष शनिवार के दिन भैरवाष्टमीपडने से शनि की शान्ति का प्रभावशाली योग बन रहा है। शनिवार 1दिसम्बर को कालभैरवाष्टमी है। इस दिन भैरवनाथके व्रत एवं दर्शन-पूजन से शनि की पीडा का निवारण होगा। कालभैरवकी अनुकम्पा की कामना रखने वाले उनके भक्त तथा शनि की साढेसाती, ढैय्या अथवा शनि की अशुभ दशा से पीडित व्यक्ति इस कालभैरवाष्टमीसे प्रारम्भ करके वर्षपर्यन्तप्रत्येक कालाष्टमीको व्रत रखकर भैरवनाथकी उपासना करें।
कालाष्टमीमें दिन भर उपवास रखकर सायं सूर्यास्त के उपरान्त प्रदोषकालमें भैरवनाथकी पूजा करके प्रसाद को भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है। मन्त्रविद्याकी एक प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपि से महाकाल भैरव का यह मंत्र मिला है- ॐहंषंनंगंकंसं खंमहाकालभैरवायनम:।
इस मंत्र का 21हजार बार जप करने से बडी से बडी विपत्ति दूर हो जाती है।। साधक भैरव जी के वाहन श्वान (कुत्ते) को नित्य कुछ खिलाने के बाद ही भोजन करे।
साम्बसदाशिवकी अष्टमूíतयोंमें रुद्र अग्नि तत्व के अधिष्ठाता हैं। जिस तरह अग्नि तत्त्‍‌व के सभी गुण रुद्र में समाहित हैं, उसी प्रकार भैरवनाथभी अग्नि के समान तेजस्वी हैं। भैरवजीकलियुग के जाग्रत देवता हैं। भक्ति-भाव से इनका स्मरण करने मात्र से समस्याएं दूर होती हैं।
इनका आश्रय ले लेने पर भक्त निर्भय हो जाता है। भैरवनाथअपने शरणागत की सदैव रक्षा करते हैं

नवरात्रि : देवी पूजन की सरल विधि

नवरात्रि : देवी पूजन की सरल विधि
शक्ति के लिए देवी आराधना की सुगमता का कारण मां की करुणा, दया, स्नेह का भाव किसी भी भक्त पर सहज ही हो जाता है। ये कभी भी अपने बच्चे (भक्त) को किसी भी तरह से अक्षम या दुखी नहीं देख सकती है। उनका आशीर्वाद भी इस तरह मिलता है, जिससे साधक को किसी अन्य की सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती है। वह स्वयं सर्वशक्तिमान हो जाता है।
इनकी प्रसन्नता के लिए कभी भी उपासना की जा सकती है, क्योंकि शास्त्राज्ञा में चंडी हवन के लिए किसी भी मुहूर्त की अनिवार्यता नहीं है। नवरात्रि में इस आराधना का विशेष महत्व है। इस समय के तप का फल कई गुना व शीघ्र मिलता है। इस फल के कारण ही इसे कामदूधा काल भी कहा जाता है। देवी या देवता की प्रसन्नता के लिए पंचांग साधन का प्रयोग करना चाहिए। पंचांग साधन में पटल, पद्धति, कवच, सहस्त्रनाम और स्रोत हैं। पटल का शरीर, पद्धति को शिर, कवच को नेत्र, सहस्त्रनाम को मुख तथा स्रोत को जिह्वा कहा जाता है।
इन सब की साधना से साधक देव तुल्य हो जाता है। सहस्त्रनाम में देवी के एक हजार नामों की सूची है। इसमें उनके गुण हैं व कार्य के अनुसार नाम दिए गए हैं। सहस्त्रनाम के पाठ करने का फल भी महत्वपूर्ण है। इन नामों से हवन करने का भी विधान है। इसके अंतर्गत नाम के पश्चात नमः लगाकर स्वाहा लगाया जाता है।
हवन की सामग्री के अनुसार उस फल की प्राप्ति होती है। सर्व कल्याण व कामना पूर्ति हेतु इन नामों से अर्चन करने का प्रयोग अत्यधिक प्रभावशाली है। जिसे सहस्त्रार्चन के नाम से जाना जाता है। सहस्त्रार्चन के लिए देवी की सहस्त्र नामावली जो कि बाजार में आसानी से मिल जाती है कि आवश्यकता पड़ती है।
इस नामावली के एक-एक नाम का उच्चारण करके देवी की प्रतिमा पर, उनके चित्र पर, उनके यंत्र पर या देवी का आह्वान किसी सुपारी पर करके प्रत्येक नाम के उच्चारण के पश्चात नमः बोलकर भी देवी की प्रिय वस्तु चढ़ाना चाहिए। जिस वस्तु से अर्चन करना हो वह शुद्ध, पवित्र, दोष रहित व एक हजार होना चाहिए।
अर्चन में बिल्वपत्र, हल्दी, केसर या कुंकुम से रंग चावल, इलायची, लौंग, काजू, पिस्ता, बादाम, गुलाब के फूल की पंखुड़ी, मोगरे का फूल, चारौली, किसमिस, सिक्का आदि का प्रयोग शुभ व देवी को प्रिय है। यदि अर्चन एक से अधिक व्यक्ति एक साथ करें तो नाम का उच्चारण एक व्यक्ति को तथा अन्य व्यक्तियों को नमः का उच्चारण अवश्य करना चाहिए।
अर्चन की सामग्री प्रत्येक नाम के पश्चात, प्रत्येक व्यक्ति को अर्पित करना चाहिए। अर्चन के पूर्व पुष्प, धूप, दीपक व नैवेद्य लगाना चाहिए। दीपक इस तरह होना चाहिए कि पूरी अर्चन प्रक्रिया तक प्रज्वलित रहे। अर्चनकर्ता को स्नानादि आदि से शुद्ध होकर धुले कपड़े पहनकर मौन रहकर अर्चन करना चाहिए।
इस साधना काल में आसन पर बैठना चाहिए तथा पूर्ण होने के पूर्व उसका त्याग किसी भी स्थिति में नहीं करना चाहिए। अर्चन के उपयोग में प्रयुक्त सामग्री अर्चन उपरांत किसी साधन, ब्राह्मण, मंदिर में देना चाहिए। कुंकुम से भी अर्चन किए जा सकते हैं। इसमें नमः के पश्चात बहुत थोड़ा कुंकुम देवी पर अनामिका-मध्यमा व अंगूठे का उपयोग करके चुटकी से चढ़ाना चाहिए।
बाद में उस कुंकुम से स्वयं को या मित्र भक्तों को तिलक के लिए प्रसाद के रूप में दे सकते हैं। सहस्त्रार्चन नवरात्र काल में एक बार कम से कम अवश्य करना चाहिए। इस अर्चन में आपकी आराध्य देवी का अर्चन अधिक लाभकारी है। अर्चन प्रयोग बहुत प्रभावशाली, सात्विक व सिद्धिदायक होने से इसे पूर्ण श्रद्धा व विश्वास से करना चाहिए।

महाकाल स्तोत्रं

महाकाल स्तोत्रं :-
इस स्तोत्र को भगवान् महाकाल ने खुदभैरवी को बताया था.इसकी महिमा का जितना वर्णन किया जाये कम है.इसमें भगवान् महाकाल के विभिन्न नामों का वर्णनकरते हुए उनकी स्तुति की गयी है .शिव भक्तों के लिएयह स्तोत्र वरदान स्वरुप है . नित्य एक बार जपभी साधक के अन्दर शक्ति तत्त्व और वीर तत्त्वजाग्रतकर देता है . मन में प्रफुल्लता आ जाती है . भगवान्शिव की साधना में यदि इसका एक बार जप करलिया जाये तो सफलता की सम्भावना बड जाती है .

ॐ महाकाल महाकाय महाकाल जगत्पतेमहाकाल महायोगिन महाकाल नमोस्तुतेमहाकाल महादेव महाकाल महा प्रभोमहाकाल महारुद्र महाकाल नमोस्तुतेमहाकाल महाज्ञान महाकाल तमोपहनमहाकाल महाकाल महाकाल नमोस्तुतेभवाय च नमस्तुभ्यं शर्वाय च नमो नमःरुद्राय च नमस्तुभ्यं पशुना पतये नमःउग्राय च नमस्तुभ्यं महादेवाय वै नमःभीमाय च नमस्तुभ्यं मिशानाया नमो नमःईश्वराय नमस्तुभ्यं तत्पुरुषाय वै नमःसघोजात नमस्तुभ्यं शुक्ल वर्ण नमो नमःअधः काल अग्नि रुद्राय रूद्र रूप आय वै नमःस्थितुपति लयानाम च हेतु रूपआय वै नमःपरमेश्वर रूप स्तवं नील कंठ नमोस्तुतेपवनाय नमतुभ्यम हुताशन नमोस्तुतेसोम रूप नमस्तुभ्यं सूर्य रूप नमोस्तुतेयजमान नमस्तुभ्यं अकाशाया नमो नमःसर्व रूप नमस्तुभ्यं विश्व रूप नमोस्तुतेब्रहम रूप नमस्तुभ्यं विष्णु रूप नमोस्तुतेरूद्र रूप नमस्तुभ्यं महाकाल नमोस्तुतेस्थावराय नमस्तुभ्यं जंघमाय नमो नमःनमः उभय रूपा भ्याम शाश्वताय नमो नमःहुं हुंकार नमस्तुभ्यं निष्कलाय नमो नमःसचिदानंद रूपआय महाकालाय ते नमःप्रसीद में नमो नित्यं मेघ वर्ण नमोस्तुतेप्रसीद में महेशान दिग्वासाया नमो नमःॐ ह्रीं माया - स्वरूपाय सच्चिदानंद तेजसेस्वः सम्पूर्ण मन्त्राय सोऽहं हंसाय ते नमःफल श्रुतिइत्येवं देव देवस्य मह्कालासय भैरवीकीर्तितम पूजनं सम्यक सधाकानाम सुखावहम...!!

शनिवार, 3 अक्टूबर 2015

श्री कनकधारा स्तोत्रम्

।। श्री कनकधारा स्तोत्रम् ।।
अंगहरे पुलकभूषण माश्रयन्ती भृगांगनैव मुकुलाभरणं तमालम।
अंगीकृताखिल विभूतिरपांगलीला मांगल्यदास्तु मम मंगलदेवताया:।।1।।
मुग्ध्या मुहुर्विदधती वदनै मुरारै: प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि।
माला दृशोर्मधुकर विमहोत्पले या सा मै श्रियं दिशतु सागर सम्भवाया:।।2।।

विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षमानन्द हेतु रधिकं मधुविद्विषोपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्द्धमिन्दोवरोदर सहोदरमिन्दिराय:।।3।।
आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दमानन्दकन्दम निमेषमनंगतन्त्रम्।
आकेकर स्थित कनी निकपक्ष्म नेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजंगरायांगनाया:।।4।।
बाह्यन्तरे मधुजित: श्रितकौस्तुभै या हारावलीव हरि‍नीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतो पि कटाक्षमाला कल्याण भावहतु मे कमलालयाया:।।5।।
कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेर्धाराधरे स्फुरति या तडिदंगनेव्।
मातु: समस्त जगतां महनीय मूर्तिभद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनाया:।।6।।
प्राप्तं पदं प्रथमत: किल यत्प्रभावान्मांगल्य भाजि: मधुमायनि मन्मथेन।
मध्यापतेत दिह मन्थर मीक्षणार्द्ध मन्दालसं च मकरालयकन्यकाया:।।7।।
दद्याद दयानुपवनो द्रविणाम्बुधाराम स्मिभकिंचन विहंग शिशौ विषण्ण।
दुष्कर्मधर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण प्रणयिनी नयनाम्बुवाह:।।8।।
इष्टा विशिष्टमतयो पि यथा ययार्द्रदृष्टया त्रिविष्टपपदं सुलभं लभंते।
दृष्टि: प्रहूष्टकमलोदर दीप्ति रिष्टां पुष्टि कृषीष्ट मम पुष्कर विष्टराया:।।9।।
गीर्देवतैति गरुड़ध्वज भामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर वल्लभेति।
सृष्टि स्थिति प्रलय केलिषु संस्थितायै तस्यै ‍नमस्त्रि भुवनैक गुरोस्तरूण्यै ।।10।।
श्रुत्यै नमोस्तु शुभकर्मफल प्रसूत्यै रत्यै नमोस्तु रमणीय गुणार्णवायै।
शक्तयै नमोस्तु शतपात्र निकेतानायै पुष्टयै नमोस्तु पुरूषोत्तम वल्लभायै।।11।।
नमोस्तु नालीक निभाननायै नमोस्तु दुग्धौदधि जन्म भूत्यै ।
नमोस्तु सोमामृत सोदरायै नमोस्तु नारायण वल्लभायै।।12।।
सम्पतकराणि सकलेन्द्रिय नन्दानि साम्राज्यदान विभवानि सरोरूहाक्षि।
त्व द्वंदनानि दुरिता हरणाद्यतानि मामेव मातर निशं कलयन्तु नान्यम्।।13।।
यत्कटाक्षसमुपासना विधि: सेवकस्य कलार्थ सम्पद:।
संतनोति वचनांगमानसंसत्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे।।14।।
सरसिजनिलये सरोज हस्ते धवलमांशुकगन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्।।15।।
दग्धिस्तिमि: कनकुंभमुखा व सृष्टिस्वर्वाहिनी विमलचारू जल प्लुतांगीम।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष लोकाधिनाथ गृहिणी ममृताब्धिपुत्रीम्।।16।।
कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरां गतैरपाड़ंगै:।
अवलोकय माम किंचनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयाया : ।।17।।
स्तुवन्ति ये स्तुतिभिर भूमिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते बुधभाविताया:।।18।।
।। इति श्री कनकधारा स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।